नवगीत
लौट रहा है दिन
घर की छत पर
लिये चाँदनी
उतर रहा है चाँद
जाग रहा है
सूनसान में
एक धुएँ का पुल
धूमिल बिजली
की बतियाहट
दीया-बाती गुल
छिपा-छिपी का
खेल खेलती
है चूहे की माँद
पेड़ों की उन
कोठरियों में
है चिड़ियों का तन
घूम रहा है
खुली सड़क पर
कवि मौसम का मन
भावों की उस
कठिन भीति को
गीत रहे हैं फाँद
जीवनयापन
का बोझा ले
लौट रहा है दिन
महुआ तर के
महुआ को है
भाँज रही खुद बिन
गाय चढ़ाने
चढ़ी नाँद पर
डोल उठायी छाँद
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ