नवगीत
नेता हैं
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नेता हैं
कुछ भी कह देंगे
भाषा से क्या लेना-देना
इनको तो बस वोट चाहिये
ये तो हैं
केले के पत्ते
भिड़ के हैं
ये लटके छत्ते
चापलूस
बस बनकर रहिये
भूख-प्यास
की बात न कहिये
जनता से क्या लेना-देना
इनको तो बस नोट चाहिये
संसद में
शतरंज खेलते
राज्यसभा
में डंड पेलते
लगते हैं
काशी का पंडा
लिये हाथ
में ऊँचा झंडा
रोटी से क्या लेना-देना
इनको तो अखरोट चाहिये
कोई भी
जा बसे जहन्नुम
इनका है
बस एक तरन्नुम
अवसर को
अजमा लेते हैं
मुद्दा मिला
भुना लेते हैं
जनसेवा ? क्या लेना-देना
इनको तो बस ओट चाहिये
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ