नवगीत
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अपने कष्ट सचेत किये कुछ
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अपने कष्ट सचेत किये कुछ
उनकी व्यथा रुलायी अक्सर
अनुभव-किरण चढ़ी जब छत पर
फुटपाथों की भूख निहारे
सामाजिकता की पुआल पर
अपने दुःख की धूप पसारे
नीरज नयन रहे मुसकाते
आँच बहुत समझायी अक्सर
अपनेपन की धर्म-ध्वजायें
नहीं निकट थीं दूर खड़ी थीं
सरसों कुछ हरियायी सी थी
आशायें मजबूर कड़ी थीं
पीड़ा ही बस पास पड़ी थी
चूम-चूम सहलायी अक्सर
अनहोनी से लड़ते-लड़ते
औरों के सुख-दुःख को जाने
तलवे तवा बने थे जिस दिन
सूरज की क्षमता को माने
कविता माई-बाप भूमिका
अँगुरी पकड़ चलायी अक्सर
आँख नहीं है दूरबीन जो
स्वयं बुराई को परहेजे
नहीं लेखनी पैनी ही कुछ
अन्तस् उमड़े भाव सहेजे
गोलमेज पर करा गोष्ठियां
गुन-धुन कुछ सिखलायी अक्सर
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ