नवगीत
हो सके तो क्षमा करना
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हो सके तो क्षमा करना
जो कहीं गलती हुई हो
है असंभव कुछ नहीं
यह बात संज्ञावान है
धूप की छत पर छपे
हर दृश्य की पहचान है
मत बुझाना याद की जो
रोशनी जलती हुई हो
सौम्यता की भित्ति पर
सौहार्द की हो अल्पना
नभ नमी पर बो रहा
हो, खोज की परिकल्पना
अंधयुग के गाल पर
रँग दीपिका मलती हुई हो
हों सफलता के नये
हारिल सुखद संवाद के
भाव की संबद्धता हो
स्वर मिलें अनुनाद के
अर्थ की अनुकूलता की
वायु भी चलती हुई हो
पेड़-पौधों की सँवरती
मंजरी मधु-मालिका हो
हर शहर हर गाँव में
जन्मी सुरक्षित बालिका हो
नहीं कोई कलुषता इस
प्रकर को छलती हुई हो
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ