नवगीत
हम ठहरे गिरमिटिया
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हम ठहरे गिरमिटिया बाबू
तुम साधन संपन्न
घर में निखहर फूटी कौड़ी
सेंकी है बस रोट
खायी है जिनिगी अड़चन का
अनगिन अनगिन चोट
हम बजार की फटकन-भूसी
तुम बोरा के अन्न
मकईरानी डाल न पायी
चुटकी भर भी घास
साँवा भी घर छोड़ दिया है
ईख न आई पास
महँगाई का हमला हम पर
तुम हो सेठ प्रसन्न
नये आधुनिक अवतारों के
तुम उभ-चुभ संसार
हम गरीब की टूटी मड़ई
हम सावन लाचार
हम अभाव के चोकर चोई
तुम हो प्रेम प्रपन्न
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ