नवगीत
कह रहा है मन
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जिन्दगी को और जी लो
कह रहा है मन
गगन की ऊँचाइयों तक
झाँकता है डर
काटने को दौड़ता है
खिड़कियों से घर
किन्तु पुरवा के सहारे
बह रहा है मन
सूर्य की परछाइयों सा
ढल रहा है दिन
वर्णिका बस ला रही हैं
गीत महुआ बिन
छाँह के सर्वोदयों को
तह रहा है मन
दीप आशा के जले हैं
लिख रहा चिंतन
भंगिमाओं पर लदे हैं
प्रेरणा के घन
दर्द के ज्वालामुखी को
गह रहा है मन
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ