नवगीत
हे नदी !
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घाटियों की
खाइयों की
पर्वतीय ऊँचाइयों की
चोट तुम सहती रही हो
हे नदी !
मेघमाली
पुण्य सलिला
भूमि पर खेली सदा हो
तुम समय के
व्याकरण की
ठोकरें झेली सदा हो
एक झरना
की तरह तुम
अनवरत बहती रही हो
हे नदी !
आदमी ने
हैं बिछाये
राह में अनगिनत रोड़े
बिध गया है
तन-बदन भी
दिख रहे हैं कई फोड़े
एक सागर
की तरह तुम
मगन ही रहती रही हो
हे नदी !
तुम किसी के
द्वार ठहरी
खुद बनाकर घाट कोई
सो गई हो
नीरनिधि पर
खुद बिछाकर खाट कोई
एक बादल
की तरह तुम
‘खुद चलो’ कहती रही हो
हे नदी !
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ