नर्गिस
पौष महीने में
कड़कती सर्दी में
पत्थरों को
चीर कर
खेतों की मुंडेर पर
अरी ओ नर्गिस!
तुम कहाँ से आ गईं?
मेरा बाग़
महक उठा है
सारा का सारा
आओ!
तुम्हारा स्वागत है,
आओ!
सीढ़ीदार खेतों की
हर मुंडेर पर
शुभ्र-धवल
कलिकाओं से
जगरमगर हो रही है
हर घाटी
कैसा उल्लास है?
कैसी उजास है?
उस पहाड़ी राजा की
सत्तर रानियों का
प्रतिरूप तुम
जिन पहाड़ी
सत्तर रानियों का
राजा के प्रति,
अपने प्रियतम के प्रति
दृढ़ विश्वास
अगाध स्नेह लिए तुम
हँस रही हो
पीली आँखों से
कितना विश्वास था उन्हें
अपने प्रेम पर,
तभी तो उन सबने
एक सौत के
बहकाने से
नदी के द्रुतगामी-तूफ़ानी प्रवाह में
लगा दी थी
छलांग
किन्तु
डाह कभी
जीत कहाँ पाती है?
इसीलिए
वह सब की सब
एक पहाड़ी महल से
निकल कर
नर्गिस बन
छा गई हो पूरे पर्वतों पर
महका दिया है तुमने
अपने प्रेम से
समूचे विश्व को
तभी तो हँसती हैं तुम्हारी पीली आँखें
खिल-खिलाती है
मेरे बाग की हर मुंडेर
नर्गिस
मेरी प्यारी नर्गिस
लौट जाना
फागुन आते ही
क्योंकि
तुम्हारी हँसी
वसंत की मोहताज नहीं