नयी जगह नयी पहचान,
कविता
( नयी जगह नयी पहचान)
आज चुपके से मुझे वो अलवेली मिली थी,
उसकी आँखों में नमी चेहरे पर माँसूमियत ढली थी,|
समय के इस भँवर में वो ही चल पढी़ थी,
मैं तो वहीं खडा़ था बस वो ही निकल पढी़ थी,|
ये कैसा था समय ये कैसी वो घड़ी थी,
कल तक जो रूला रही थी आज खुद ही रो पढी़ थी,
एक समय था हमारा उसकी ये एक ही घडी़ थी,
नहीं थे हम खुश किसीके आने की पढी़ थी,
आज चुपके से मुझे वो अलवेली मिली थी,
उसकी आँखों में नमी चेहरे पर माँसूमियत ढली थी,
न थी उसकी पहचान वो चुपके से खड़ी थी,
कैसे वो कहे हमसें कैसी वो घड़ी थी,
हाथ बढा़ कर किया इशारा समय की वो क्या घड़ी थी,
जगह वो अजनबी थी मन में उठी हड़बडी़ थी,
नयी वो जगह थी वह खूबी से खड़ी थी,
रिश्तों को निभानें में हमसें भी वो बढी़ थी,
जाना था कहीं पर वो मुझे बुला रही थी,
मुझे साथ लेकर वो वहीं निकल पढी़ थी,
नयी वो जगह थी वहा कयी सालों बाद वो खडी़ थी,
बस उसकी ही पहचान और वो मैरे साथ में खड़ी थी,
पहचान नहीं मैरी वो परिचय करा रही थी,
हर समय वो मैरे वहाँ पर साथ में खड़ी थी,
मैं था वहाँ पर उसको मैरी ही पढी़ थी,
क्या वो समय था क्या वो घड़ी थी,
आज चुपके से मुझे वो अलवेली मिली थी,
उसकी आँखों में नमी चेहरे पर माँसूमियत ढली थी,
आज भी वहीं मुस्कान वहीं माँसूमियत में खड़ी थी,
समय दिन साल और बस ऊमर अब बढी़ थी,
कैसी ये किस्मत उसकी कर्म की जली थी,
वो खुशियाँ विखेरतीं उसको रूला रही थी,
सभी समय की समस्याओं को झेलकर वो मुसकुरा रही थी,
अपने रिश्तों को वो वह खूबी निभा रही थी,|
Writer–Jayvind singh