*नया रास्ता (कहानी)*
नया रास्ता (कहानी)
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घर को गिरवीं रखकर बैंक से कुछ कर्ज लेने के लिए देवेंद्र बाबू गए थे । आखिर और कोई चारा भी तो नहीं था ! बेटी की शादी में लड़के वालों ने केवल एक ही मांग रखी थी “बारात की खातिर अच्छे से कर दीजिए”। मगर बरात की खातिर अच्छे से कैसे होती है- इसकी कोई परिभाषा तो कहीं लिखी हुई नहीं है ? जैसा चलन है ,देवेंद्र बाबू ने एक होटल में जाकर बातचीत की । बारातियों की संख्या लगभग 20 — 25 कमरों के इंतजाम के बराबर बैठती थी । रात्रिभोज में केवल बराती ही बराती मिलाकर तीन सौ बैठ रहे थे। अच्छा हलवाई मुंह फाड़ कर पैसे मांग रहा था । बरात की अच्छे से खातिरदारी लड़की के पिता को पहाड़ जैसा बोझ मालूम पड़ रही थी ।
बैंक से घर पर कर्ज इतना आसान नहीं होता । जब दो-तीन चक्कर बैंक के लग गए ,तब यह उम्मीद जगी कि अब लोन पास हो सकता है । लेकिन इससे पहले कि लोन फाइनल हो ,जब देवेंद्र बाबू बैंक के दरवाजे पर पहुंचे तो एक सज्जन उनका इंतजार कर रहे थे ।
“नमस्ते देवेंद्र जी”- उन अनजान सज्जन ने हाथ जोड़कर जब देवेंद्र जी को नमस्ते की तो देवेंद्र जी उन्हें पहचान नहीं पाए । पहचानते भी कैसे ? उनका कोई परिचय भी तो नहीं था ।
“मैं आपको पहचाना नहीं ?”-देवेंद्र जी ने उनसे कहा ।
“आप मुझे नहीं जानते ,लेकिन मैं आपको जानता हूं । पूरे शहर में आपकी ईमानदारी और नेकनीयत की साख है । हमने भी आपसे ही पढ़ा था। क्या शानदार आप पढ़ाते थे ! कोई ट्यूशन नहीं ,कोई अतिरिक्त लोभ की प्रवृत्ति नहीं ! “-अनजान सज्जन देवेंद्र बाबू की प्रशंसा करते जा रहे थे और देवेंद्र बाबू की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
” मैं समझ नहीं पाया कि आप क्या कहना चाहते हैं ?”-अंत में उन्होंने पूछ ही लिया ।
“हम चाहते हैं कि अपनी संस्था की ओर से आपकी बेटी की शादी का सारा खर्च उठाएं और आपको समाज में शर्मिंदगी का कोई मौका न आने दें।”
अनजान व्यक्ति के मुख से यह बात सुनकर देवेंद्र बाबू को जहां एक और राहत महसूस हुई वहीं दूसरी ओर उनका सर शर्म से जमीन में गढ़ गया । सोचने लगे क्या अब समाज की दया और दान से अपनी गृहस्थी को चलाना पड़ेगा ?
“क्या सोच रहे हैं मास्टर साहब !”-अनजान व्यक्ति ने जब दूसरी बार उनसे पूछा तो मास्टर साहब ने उत्तर दिया “आप मेरी मदद कर तो देंगे लेकिन फिर जो फोटो मुझे आपके साथ खिंचवाना पड़ेगा और उस फोटो को अखबारों में साझा होते हुए देखने के लिए विवश होना पड़ेगा ,वह मेरे लिए बहुत भारी बैठेगा।”
अनजान व्यक्ति देवेंद्र बाबू के कथन के मर्म को समझ गए । सकुचाते हुए बोले “संस्था का पैसा है ,संस्था का प्रस्ताव है । हमें रिकॉर्ड के लिए कुछ तस्वीरें और अखबार की कटिंग रखनी पड़ती हैं। इन सब का आशय आप को लज्जित करना नहीं होता अपितु समाज में लड़कियों की शादी आपसी सहयोग के साथ संपन्न हो जाए ,इस दिशा में समाज को प्रोत्साहित और प्रेरित करना ही हमारा उद्देश्य रहता है ।”
“ठीक है । सोच कर बताऊंगा । “-देवेंद्र बाबू ने भारी मन से जवाब दिया ।
“कब तक बताएंगे मास्टर जी ? हमें भी जल्दी रहती है । अगर आप तैयार हैं तो ठीक है वरना किसी और लड़की की शादी में मदद करेंगे । ”
“दो-चार दिन में आपको जवाब दे दूंगा। अपना मोबाइल नंबर दे दीजिए ।”- देवेंद्र बाबू ने नंबर मांगा तो अनजान व्यक्ति ने जेब से विजिटिंग कार्ड निकाल कर उन्हें दे दिया।
घर पहुंचे तो मन में ढेरों प्रश्न थे। पत्नी से चर्चा करूं कि न करूं ? क्या प्रस्ताव स्वीकार करना उचित रहेगा ? घर में प्रवेश किया तो देखा समधी जी घर पर बैठे हुए हैं । देखते ही उठकर खड़े हो गए । देवेंद्र बाबू ने उन्हें पुनः कुर्सी पर बिठाया । कहने लगे ” मुझे बुला लेते ,मैं चला आता । आपने क्यों तकलीफ की ?”
पत्नी से चाय बनाने के लिए कहा तो समधी जी बोले “एक कप चाय तो हम पहले ही पी चुके हैं । आपके साथ में एक कप चाय और पी लेंगे ।”-कह कर जब मुस्कुराए तो देवेंद्र बाबू को भी विषम परिस्थितियों के बीच में जीते हुए भी मुस्कुराना पड़ा ।
“बरात के संबंध में मैं एक विशेष बात आपसे करने आया हूं ।”-समधी जी ने जब यह कहा तो देवेंद्र बाबू भीतर तक काँप उठे। कभी उन्हें बैंक में प्रस्तुत किए गए लोन के कागजों का स्मरण हो आया ,तो कभी समाज-सेवी संस्था की ओर से दिया गया प्रस्ताव दिमाग में कौंध गया ।
“जी ! मैं बरात की भली प्रकार से खातिरदारी करने की दिशा में ही प्रयत्नशील हूँ। आप चिंता न करें । कोई न कोई इंतजाम बहुत अच्छी प्रकार से हो जाएगा ।”-चेहरे पर नकली मुस्कुराहट लाने का भरसक प्रयत्न करते हुए देवेंद्र बाबू ने कहा ।
“मैं यही कहने आया हूं कि अब आप कोई चिंता मत करिए। मैंने आपकी सारी बातें जो संस्था से हो रही थीं, संयोगवश सुन ली थीं। फिर मुझे बैंक में जाकर यह भी पता चल गया कि आपने घर को गिरवीं रख कर लोन लेने के लिए एप्लीकेशन दे रखी है ।”
देवेंद्र बाबू को काटो तो खून नहीं । बहुत अपमानजनक और असहज स्थिति वह अनुभव कर रहे थे । मगर सच्चाई को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता था !
“अब हम आपस में समधी हैं। हमारे रिश्ते बँध चुके हैं । आपका सुख-दुख हमसे अलग नहीं हो सकता । हमने निश्चय किया है कि घर-घर के केवल पाँच-सात लोग आकर शादी संपन्न कर लेंगे । व्यर्थ के दिखावे , प्रीतिभोज की बर्बादी और हैसियत से बाहर जाकर खर्च करने से क्या लाभ ? हम भी कोई कुबेर के खानदान के थोड़े ही हैं ? छोटी-सी हैसियत है । बस खाने-पीने की कोई कमी नहीं है । पैसा बहुत मुश्किल से कमाया जाता है । बर्बाद करने के लिए नहीं होता ।”-समधी जी के मुख से यह बातें सुनकर देवेंद्र बाबू को पहली-पहल तो विश्वास ही नहीं हुआ कि समस्याओं का इतना सुंदर समाधान भी निकाला जा सकता है ।
” यह समाज में आज तक भला किसने सोचा होगा ? लेकिन आपने अपने घर में सबसे राय कर ली है क्या ? लड़के की माता जी सहमत हैं ?”
“सब से राय करने के बाद ही मैं आपके पास प्रस्ताव लेकर आया हूं । मैंने बैंक से ही जब आपकी बातें सुनी थीं और घटनाक्रम मालूम किया तो पत्नी को फोन करके इस स्थिति से अवगत कराया था और जो प्रस्ताव मैं अब रख रहा हूं उसके पीछे मेरी पत्नी का पूरा समर्थन है ।”
सुनकर देवेंद्र बाबू की आँखों से खुशी के आँसू निकलने लगे । समधी जी ने उन्हें गले से लगा लिया ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 9997615451