नयकी दुलहिन
(अवधी कविता)
सास – ससुर गए हैं दिल्ली
प्रियतम हैं परदेश
पहली बेरी नयकी दुलहिन
फंस गई घरे अकेल
घर पर गोरू चौवा हैं,
बड़ा दुवार मोहार
किंतु,
दुलहिन छोड़ केहू ना,
है वहां रहवार।
सुबह-सुबह उठि झाड़ू , पोंछा
भीतर, बहर कर दें
गोरू के भी सानी, पानी
सब के नाद में भर दें ।
जब केहू दरवाजे आवे
खिड़की पड़े देख के ओका
दुलहिन अड़वय से बोलय
मालिक अंते गयल हैं भैय्या
नरसों फिर तूं अइय्हा ।
एक दिन बछिया गयल तोराय
पालतू कुकर नाम है लूसी
लेहलय ऊ दौड़ाय
हाता में खुब कूद फांद के
बछिया गइल बगाय
आगे – आगे बछिया भागय
ओकरे पीछे नयकी दुलहिन,
लूसी गौडे़रंय आगे से
औ झौं – झौं-झौ भूंकय ।
पट्टीदार के कुल लड़के
मोबइल से बनावें रील
नयकी दुलहिन के, दौड़, धूप पे
ओन्हनेन के ,न आवय शील ।
नाम हरीश उम्र पचासा
देखेन जब ऊ तमाशा
पुचकार के बछिया कै
तब पगहा लेहेन पकड़
खींच के ओके खूंटा में
ऊ फिर से देहन जकड़ ।
दुलहिन कहनी
धन्यवाद!
हे! बड़का भैय्या,
अम्मा अइहय तब फिर अइय्हा ।
हरीश गयन सकुचाय !
सोच विचार के फिर से बोलेन,
दूलहिन!
का कुछ मीठा बाय ?
~आनन्द मिश्र