नमूना मां की पसंद का
मैंने बचपन से देखा मां को बुनते हुए,
अपनी पसंद का नमूना चुनते हुए।
वह डालकर नित नए नमूने स्वेटर बनाती थी।
अपनी पसंद के गुड्डे – गुड़िया उसमें सजाती थी।
अक्सर नमूना पसंद न आने पर झुंझला जाती थी।
बिना कुछ कहे उधेड़ती जाती थी।
पर उन्होंने अपनी पसंद का नमूना बुना।
उसमें एक गुड्डे गुड़िया का जोड़ा बुना।
उस नमूने को सब ने खूब सराहा।
मां ने भी उसे अपनी खूबसूरत कृति बताया।
मगर मां तो कलाकार थीं बुनती थीं नित नए नमूने।
सभी में प्रयास था पूर्व से बेहतर हों नव सृजित नमूने।
मां ने बेहद खूबसूरती से गढा एक नया नमूना।
मेरी मां को इस क़दर भा गया वह नमूना।
कि साथ रखकर दोनों को तुलना वो करने लगी।
जिसे बुना गया था पहले पूरी लगन से उसी में नुक्ताचीनी करने लगी।
अब उसे न थी परवाह जमाने की पसंद की,बस गुस्से में आकर उधड़न सी करने लगी।
नमूना कराह उठा, सिसकियां भरने लगे वो गुड्डे गुड़िया।
रुको मां रुको तुमने ही बनाया था पसंद से नमूना और सजाए थे हम गुड्डे गुड़िया।
आज क्यों तुम ही उधड़ाई करने चली हो ।
क्या हुआ अगर अब पसंद हम नहीं हैं, हमें इस क़दर तुम न मां यूं उधेडो।
इससे तो बेहतर है रेखा नमूना यह प्यारा जमाने को देदो।