नमक की दुकान
बातों की बात करे तो भी किससे करें,
हर शक़्स आज नमक लिएँ बैठा है,
वो समझ कर भी समझ सकता नहीं,
ज़ख़्मों को कुरेदने में लगा रहता है,
ज़ख़्म पे नमकीन हवा असहनीय पीड़ा देती है,
अब कौन समझाएँ उनको ना किया करें,
अपनें नमक की दुकान कही और लगाएँ,
कोई नहीं आज पास ऐसा मेरे यारों,
जो दिल की बात मैं उनसें कर पाता,
कुछ देर ही सही रात मैं सो पाता,
हर रात ज़ख़्मों सँग नागिन सी ड़सती है,
डाल नसों में ज़हर ना जीने ना मरने देती है,
दिल की बात करने को भी तरस गया हूँ,
हर ज़ख़्म को रख दिल में थक गया हूँ,
ना होती ग़र हरेक के पास नमक की दुकान,
तो आज दिल यूँ ख़ुद के ज़ख़्मों पे ना रो रहा होता,
आँखों में सुकूँ लेके चेन की नींद सो रहा होता,
नमक की दूकानों ने मुझें सोने ना दिया,
ज़ख़्म ज़ख़्म अब नासूर जिसनें जिंदा रहने ना दिया,
यारों ग़र मानो तो नमक छिड़कना बंद कर दो,
किसी ग़म के मारे को यूँ तड़फाना बंद कर दो,
नमक के जगह मरहम की दुकान खोल लो,
ग़र आएँ कोई भटका ग़म का मारा तो,
उसके मरहम लगा उसके हॉल पे छोड़ दो
पर तुम सब अपनी नमक की दुकान बंद कर दो।।
मुकेश पाटोदिया”सुर”