नभ के दोनों छोर निलय में –नवगीत
नवगीत
चर्चाएं
आपस में करते
नभ के दोनों छोर निलय में ।
पुरवाई की विरह– वेदना
सुनता है सागर
पछुआ की लपटें दहती हैं
तपता खूब दिवाकर
प्यासी– प्यासी
नदियां बहती
थम –थम सूखेपन के भय में ।
आसमान से धूप उतरकर
बागों ,झरनों तक
छांव ढूंढती तपती जाती
लगभग शाम तलक
बैठ किसी
बरगद के नीचे
सो जाती बेसुध निर्भय में ।
गर्म हवाएं चक्रवात संग
करती हंसी ठिठोली
और गर्जना नभ करता है
विद्युत का हमजोली
निजी स्वार्थ में
मानव डूबा
फिर भी मायामय में ।
रकमिश सुल्तानपुरी