नफ़रतों का दौर कैसा चल गया
नफ़रतों का दौर कैसा चल गया।
आदमी इक आदमी से जल गया।।
2122, 2122, 212
आदमीयत भूल कर ये आदमी।
आदमी को हर समय पे छल गया।।
खा रहा है रोटियाँ वो चैन से।
देख कर इक आदमी को खल गया।।
मिल खुशी से सब रहा करते रहे।
चल न पाया वक्त वो कब कल गया।।
बेजुबां जो अनगिनत बसते रहे।
आशियाना मिट रहे जंगल गया।।
है बहुत पैसा मरी इंसानियत।
पालता जो वृद्ध आश्रम ठल गया।।
वो बड़ा बूढ़ा जो दिल का नेक था।
कह रहे थे लोग उस दिन भल गया।।
लीडरों की बात अब तो क्या कहें।
मिल गया तो बिक गये सब दल गया।।
जिंदगी जीना जिसे कहते रहे।
आदमी का वो हुनर ‘कौशल’ गया।।