नफरतों के दौर में एक शजर ही बाकी रहा
::::::::::;:::::::गजल ::::::::::::::::::::
तेरे हिस्से में तुम्हारा शहर भी बाकी रहा
मेरी किस्मत में हमारा घर यही बाकी रहा
रहमतें बरसी खुदा की हर घड़ी हर शख्स पर
सिर्फ़ हिस्से में हमारे जहर ही बाकी रहा
हाँ मुझे मालूम है ये आँधियों का शहर है
नफरतों के दौर में एक शजर ही बाकी रहा
आदमी इंसानियत पर अब है भारी पड़ रहा
मौत के खंजर से कोई नगर ही बाकी रहा
हो गयी है अब सियासत खोखली औ पिलपिली
आदमी के फूटने को कहर ही बाकी रहा
………. ? ? रचनाकार-कवि योगेन्द्र योगी