नदी से रेत
नदी से रेत – कोमल ” काव्या ”
उसकी प्यास ने मुझको सुखाकर रेत कर डाला,
समंदर से बताऊँ क्या! मैं उससे क्यूँ नहीं मिलती।
मेरे धारे भी चंचल थे, मेरे सोते भी शीतल थे,
मिलन को उसके थे व्याकुल मचलते पल में पल- पल थे।
गर्जन में कहीं उसकी मेरा क्रंदन समाया था,
सुविस्तृत कर के बाहों को वो मेरे पास आया था ।
महज नीला था रंग उसका, मैं कितने रंग में ढलती,
कहीं झरने ,कहीं नहरें, कहीं बन झील सी छलती ।
(समंदर से बताऊँ क्या! मैं उससे क्यूँ नहीं मिलती।)
भगीरथ का जनम लेके धरा पर मुझको लाया था,
हठी था और अभिमानी जो चाहा कर दिखाया था।
बनी एक देवकन्या से मैं उसकी देवदासी तक,
जटाधर की जटाओं से उतरकर विंध्य काशी तक ।।
मिलन की तीव्र उत्कंठा मेरे भीतर रही पलती,
तपस्या में था बल इतना मैं कैसे साथ न चलती।
(समंदर से बताऊँ क्या! मैं उससे क्यूँ नहीं मिलती।)
उतरकर हिमशिला से जब धरा पर दौड़ आई थी ,
उसी क्षण मैं पिता से सारे बंधन तोड़ आई थी।
नदी और नारी का बचपन तो बस परिहास में बीता,
मगर बीता मेरा यौवन तो बस वनवास मे बीता।
जो मल को सोख के अंदर धरा निर्मल बनाती है,
वही यमुना, सरस्वत और वही गंगा कहाती है ।
पयोधि के किनारों पर दिवा में रेत हो जलती,
शशि की शुभ्र किरणों से हो कोमल यामिनी खिलती ।
(समंदर से बताऊँ क्या मैं उससे क्यूँ नहीं मिलती। )
स्वरचित: कोमल ‘काव्या’
स्थान-बिलाईगढ़, जिला- सारंगढ़, राज्य- छत्तीसगढ़
मोबाइल नंबर : 8895153364
ईमेल: Komal Agarwal 750@gmail.com