नदी तुम भी
नदी !
तू सरल है
निर्मल है
सदानीरा है
गतिशीला है
जीवनदायिनी है
जितना भी कहूँ
तुम्हारी प्रशस्ति में
वह कम ही होगा
किंतु तुम भी
अपने विस्तार
और आगे बढ़ने की जिद में
कठोर चट्टानों को छोड़कर
कोमल मिट्टी कणों को ही
काटा
केवल काटा ही नहीं
बहाकर ले गयी अपने साथ
करके उन्हें अनाथ
अपनों से बेदखल
विजित देश के
बंदी सिपाहियों की तरह
मोती प्रसाद साहू