नदी तट पर मैं आवारा….!
” नीम की पेड़…
ओ नदी का किनारा…!
अपने ही विचारों में खोया…
ये मन आवारा…!
विकास की गति कहूँ…
या प्रगति का पथ कहूँ…!
कितना अजीब है….
मेरे मन को रथ बना…
मुझे ही कहता ;
हे मानव, वाह..
क्या तेरा नसीब है….!
आज कितना तरक्की कर गया है…
हवाओं के रुख बदल गया है…!
नदी-नलों में जल के बहाव भी…
तेरे इशारों से राह बदल गया है…!
वाह…!
तू तो बहुत ही भाग्यवान है….
तूझमें कितना ज्ञान है…!
इंद्र जी..! के बाद…
अब तो तेरा ही गौरव पूर्ण स्थान है…!
चांद और मंगल पर पहुंच गया है…
सूर्य को छूने की बात भी कह गया है…!
जो चाहा…,
ओ सब मिल गया है…!
तेरे विचारों से यमराज जी.! की…
गद्दी भी हिल गया है..!
मेरा मन भी है कितना भोला…
आधुनिक-चमक-दमक का पहना है चोला..!
विकास के बहकावे में…
बहक गया है….!
और केवल ..
अपने ही बारे में…
चिंतन करने लग गया है…!
ऊंचे मन की ख्वाबों के संग में…
स्वार्थी मन के रंग-ढंग में….!
एक अभिमानी-मतवाला…
राही बन गया है… !
अबुझ-मन-अनाड़ी….
अपनी सोच की खिलाड़ी…!
अपने ही विकास की बातें सुन…
स्वयं की विचारों में खो गया है…! ”
” उसी नीम की पेड़ पर…
चूँ-चूँ करती चिड़िया रानी…;
अपने मन की बातें कह जाती…!
आधुनिकता की परिवर्तन से…
मुझ पर हुआ है, कैसे प्रहार…
यह कहती-कहती…,
शायद..! वह थक जाती है….!
फिर भी मुझे, ओ कहती है…!
तूझे मानव कहूँ या दानव…!
तेरे विकास का पथ…
इतना कठोर हो गया है…!
नदी-नालों में जल-स्तर की जगह…
रेत जम गया है….!
और…
घांस-फूस भी उग गया है…
हवाओं में कितना तपन बढ़ गया है….!
मौसम भी प्रतिकूल हो गया है….
वात (हवा) की क्या बात करूँ…
उसमें भी अब ज़हर घुल गया है…!
तेरे विकास का है असर…
मेरे घर-परिवार गया है बिखर…!
न कहीं…,
चूगने को दाना नहीं…!
न कहीं तरूवर-घोंसलों में…
अन्न-खजाना नहीं…!
जंगल कट…
विरान हो गया… !
पेड़-पौधे की जगह…
औद्योगिक प्रतिष्ठान (फैक्ट्री) हो गया…!
ऊसर भूमि (उपजाऊ) भी…
बंजर और पत्थर-सा हो गया…!
यदि है किसी नदी-नालों में…
पानी का बहाव या ठहराव…,
वह भी प्रतिष्ठान-जहरीली-उत्पाद के,
हो गए शिकार…!
क्या करती चिड़िया रानी..?
मुझ पर करती, अपनी इरादों से…
बारंबार वार-प्रहार..!
शायद…! ,
उसके पास , हमारी तरह नहीं था…
अन्य और कोई दूसरा औजार…!
अन्यथा मैं भी होता…
उसके कोपभाजन का शिकार…!
चूंकि मुझ पर छाया है…
विकास का असर, प्रगति का कहर…!
इसलिए..
सुकुन छांव में (नीम के) बैठा मैं आवारा…
बहरा बन बे-खबर…!
फिर भी उसने बीट (मल) की प्रहार से…,
मुझ पर, एक दांव-पेंच अजमाया…!
और..
मुझे मेरे विचारों के सपनों से…
मन भटकाया…!
अपने इरादों का कहर बरपाया…
मुझे समझाने का गुर अपनाया…!
आस-पास आकर फिर…,
चूं चूं करने लगी…!
आज-कल तू…
कितना बदल गया है…!
अपने इरादों में न जाने…
कितना तब्दील कर गया है…!
इंसानियत के इरादों से…
कितना मुकर गया है….!
पहले-पहल…
तेरा मन कितना अच्छा था….!
कुछ वर्षों पहले…
मेरी बहन पोपट (तोता) को…
घर में रख, घर को सजाता था…!
मेरी नंदरानी…
कपोत(कबूतर) रानी को पाल,
प्रेम-प्यार की भाषा बोल…
प्रेमी-मन की संदेश-वाहक कह जाता था…!
अब तेरा मन-विचार…
बहुत बदल गया है….!
छल-कपट तूझमें…
घर कर गया है…!
धन पाकर…
धनीराम बन गया है…!
विकास की नशे में….
दुर्जन लाल बन गया है…!
धनवान होने का..
अब देख असर…,
पोपट की जगह…
पप्पी-पुसी (कुत्ता-बिल्ली)…
पाल रखा है…!
प्रेम का संदेश-वाहक (कबूतर) छोड़…
बे-तार यंत्र (मोबाइल) को ,
मन-तंत्र-संचार-यंत्र रख गया है..!
अब कहते हो…
पप्पी-पुसी काट दिया है….,
जहर फैल गया है…!
और भी कहते हो…
बे-तार-यंत्र-तरंग से…,
मस्तिष्क कैंसर बढ़ गया है…!
क्या..?
है यह कोई परिवर्तन…
या तेरे कृत्यों के विवर्तन…!
क्या..?
है यह विकास…,
तेरे ज्ञान-विज्ञान का संवर्धन…!
या फिर…
तेरे अनुप्रयोग का अपवर्तन…!
तेरे विकास के अधीन…
मेरे स्वतंत्रता के पंख… ,
हो गये पराधीन…!
चिड़िया रानी चूं-चूं करती…
च छ झ ञ , क्ष , त्र , ज्ञ
और…
न जाने कितनी बातें कह गई…!
उक्त बातें कहते-कहते…
उनके आंखों में आंसू भर गई…!
तू कर विकास…
तू गढ़ विकास…,
हमें कोई एतराज़ नहीं….!
तू विकास का परवाज़ बन…
तू इस पर राज कर… ,
हमें कोई एतबार नहीं…!
हे आवारा..!
कर कुछ चिंतन..,
कर कुछ मंथन….!
क्यों. हो रहा है..?
प्राकृतिक विघटन…!
तू बन संकटमोचन…
तू कर सृजन….!
कुछ कर जतन…
तू हमारा सहारा बन…!
है हमारा तूझे..
शत् शत् नमन ..! ,
विकास तेरी उड़ान है…
तू इसकी परवाज़ बन…!
ओ नदी की तट…
ओ चिड़िया की रट…,
मुझे कुछ कह गई…!
मैं आवारा…
निरूत्तर-सा हो गया…,
और…
उनकी रट मेरे मन में चुभ गई…!!
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