नदी की पपड़ी उखड़ी / (गर्मी का नवगीत)
तपे,
घाट के पाट,
नदी की
पपड़ी उखड़ी ।।
कि उठती
गरम-गरम
अब पीर ,
नदी के
तप्त हृदय से ।
कि रीता
रस-रस
मीठा नीर ,
रेत पर
लिखे प्रलय से ।।
थमा,
वाव का ताव,
वदी की
भाँवर मचली ।।
कि उठती
उद्गम से
जो हूक,
शोक के
गीत सुनाती ।
हुई जो
पहले हम-
से चूक,
दृश्य वो
आज दिखाती ।
लिए
ठूँठ का बोझ,
सदी की
काँवर पसरी ।
तपे
घाट के पाट
नदी की
पपड़ी उखड़ी ।
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—– ईश्वर दयाल गोस्वामी ।