नदी किनारे
क्या याद है तुम्हे?
नदी किनारे को वो शाम
जहाँ पहुचते ही
तेरी आँखे हो जाती
थी रतनाम।
तुम्हे देखते ही चीड़
झूमने लगते थे
बौराये हुए आम्र मंजरियों से
अमिय रस अनायास
झरने लगते थे।
नदी की शांत सरल लहरे
उद्दात हो उठती थी
उठती गिरती तरंगे तेरे
मदहोश होने का अनुपम
संकेत देती थी।
हो उठते मादक
वो रेत के सूखे टीले
अचानक जीवंत हो उठते,
जिनमे कभी
जीवन के संकेत
शून्य से होते थे।
नदी के किनारे की हवा
झूम कर बहने लगती
आह्लादित गोधूली
तेरे आने का बेसब्री से
बाट जोहती।
डहलिया के लताएं
व्यग्र तुम्हारे
ललाट को चूमती
नीम पीपल खामोश
इस नयनाभिराम
दृश्य को अपलक
बस देखती।
तेरे आने के आहट
थी संकेत पक्षियों के
घर लौटने की
उनीद नींद में सोते
सिंह को अपनी
मांद में लौटने की।
आज वही मैं अविकल
अविराम व्यग्रता से
प्रतीक्षारत हूँ
तेरे आने के इंतजार में
दोपहर से बैठा हूँ।
पर निर्मेष
न तुम्हे आना था
न तुम आयी
स्याह निशा जब
लेने लगी अंगड़ाई
तब रुग्ण ही
चली मेरी तरुणाई।
निर्मेष