नज़्म
तू ही बता ऐ दिल, में क्या करूं।
कुछ बदली-बदली सी बादेसबा।
तश्नगी का दौर है तलब बढ़ी हुई।
बंद मैकदे के किवाड़, मैं क्या करूं?
शबनम भी तड़प रही है प्यास से।
दरिया-ए-अश्क भी अब खुश्क है।
एक तपिश है सी शजर की छांव में।
इस जलते चमन के लिए मैं क्या करूं?
नाखुदा भी हैं यहां रहनुमा भी यहां।
बस कुछ नहीं हैं तो सिर्फ कश्तियां।
ताने सीना खड़ा गर्दिशों का सागर।
हो गया जर्जर सफ़ीना, मैं क्या करूं?
हौसला है आज भी इस दिल में मौजूद।
पर कतरे हैं सैय्याद ने तो भी क्या हुआ।
महबूब की नजर में हारा हुआ सिपाही हूं ।
अफसोस! उनकी सोच का मैं क्या करूं?
जय प्रकाश श्रीवास्तव पूनम