नज़्म
बारहा पूछा है मैंने अपने दिल से
पर ये है कि बरसों से यूँ ही मौन है
तुम गर सबब मेरी उदासी का हो
तो फिर मेरी हँसी में झलकता कौन है…
कभी पाया ही नहीं जब तुमको मैंने
तो फिर तुम्हें खोने का ये मलाल कैसा
न तुम और मैं ‘हम’ ही बने थे कभी
फिर भी तेरी ही होने का ये कमाल कैसा…
तेरी पसंद क्या है, मैं तो ये भी नहीं जानती
मेरी नापसंदगी से वाक़िफ़ मगर तू भी नहीं
तूने पुकारा हो मेरा नाम कभी, मुझे याद नहीं
मैं भी संभल जाती हूँ अब, ले न लूँ तेरा नाम कहीं…
तेरी सुबह और तेरी शामों के साये
मेरे तस्व्वुर से अलाहिदा हैं बहुत
तेरे घर के रास्ते मेरी आहट नहीं पहचानते
मेरी राहें भी तेरे इंतिज़ार में ख़फ़ा हैं बहुत…
तेरी खनकती हँसी सुने भी मुद्दतें हुई
मुद्दतों से मेरे आसूँ भी नहीं पोंछे तूने
साथ ठहरना तो क़िस्मत में था ही कब
साथ चलने को नये रस्ते भी नहीं सोचे तूने….
तेरे ख़्वाब जुदा हैं, जुदा हैं फ़लसफ़े मेरे
गुफ़्तुगू की कोई सूरत नज़र नहीं आती
तुझे लिखूँगी तो सब पहचान लेंगें किरदार तेरा
सो कोई कहानी भी हमें साथ नहीं लाती…
जो हुआ सो होना ही था दरमियाँ हमारे
बदलने की कोशिश करते भी तो बेकार थी
तुम्हारी फ़ितरत ही में था दग़ा करना
और मेरी तो फ़ितरत ही इंतिज़ार थी..
सुरेखा कादियान ‘सृजना