नज़र चुरा कर
नज़र चुरा के वो गुज़रा, मेरे क़रीब से।
छीना किसी ने उसे, जैसे मेरे नसीब से ।
मोहब्बत हमसे न थी , तो कह देते हमें
क्यों कहलवाया हमें, मेरे ही रकीब से ।
बाज़ी इश्क़ की ,जाने क्यों हम हार गये
टुकड़े चाहत के हमने रखे थे तरतीब से।
सोने के सिक्के,ले गये चाहतें ख़रीद कर
कीमत नहीं चुकाई गयी , इस ग़रीब से।
ख़लिश दिल में थी ,लहज़ा मगर नर्म रखा
बात हमने की सदा ,अदब ओ तहज़ीब से।
सुरिंदर कौर