*नजर के चश्मे के साथ ऑंखों का गठबंधन (हास्य व्यंग्य)*
नजर के चश्मे के साथ ऑंखों का गठबंधन (हास्य व्यंग्य)
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जब से हमने नजर का चश्मा पहनना शुरू किया है, बड़ा अटपटा महसूस हो रहा है। वह जमाना और था, जब हम अकेले ऑंखों के दम पर सब कुछ देखते थे। ऑंखें खोलीं और देखना शुरू। कोई रुकावट नहीं। किसी के समर्थन की आवश्यकता नहीं थी।
अब ऑंखें तभी देखना शुरु करती हैं, जब नजर के चश्मा का समर्थन मिलता है। कुछ भी पढ़ना हो या दूर का भी देखना हो तो पहले नजर के चश्मे के साथ मीटिंग करनी पड़ती है। नजर का चश्मा दो कानों और एक नाक पर खुद टिका हुआ है। अगर नाक और कान को भगवान न करें, कुछ हो जाए तो नजर का चश्मा टिक ही नहीं सकता। हर समय कानों पर बोझ रहता है।
नाक पर नजर के चश्मे का निशान बन जाता है। मेरे ख्याल से अगर चार-पांच साल नजर का चश्मा किसी ने नाक पर टिका लिया, तो दूसरा व्यक्ति नाक देखकर ही पहचान लेगा कि इसकी ऑंखें नजर के चश्मे का समर्थन लेकर ही चल रही थीं ।एक बार नजर का चश्मा चढ़ गया तो उतरना बहुत मुश्किल है। आदमी जोड़-तोड़ कोशिश तो करता है कि किसी तरह अपनी आंखों की दशा सुधार ले और नजर के चश्मे से मुक्ति प्राप्त कर ले। लेकिन व्यवहारिक रूप से यह संभव नहीं रहता। अगर नजर का चश्मा नहीं पहना जाए तो भी जेब में रखकर चलना पड़ता है। कोई बारीक लिखा हुआ अगर पढ़ना है, तो नजर के चश्मे के बगैर नहीं पढ़ा जा सकता। कहने का मतलब यह है कि चीजों की बारीकियों में उतरने के लिए नजर का चश्मा जरूरी हो जाता है।
जो बात बिना नजर का चश्मा लगाए हुए ऑंखों में होती है, वह नजर का चश्मा लगाने के बाद नहीं रह पाती। हर समय आंखों और परिदृश्य के बीच में चश्मा अपनी उपस्थिति दर्ज करता रहता है। यह तो भगवान की बड़ी कृपा है कि नजर के चश्मे के समर्थन से आंखें देख पा रही हैं। वरना अगर आंखों की स्थिति ज्यादा कमजोर होती तो फिर नजर का चश्मा भी कुछ नहीं कर पाता।
नजर के चश्मे कई प्रकार के होते हैं। कुछ लोगों को नजदीक का देखने के लिए एक चश्मा लगाना पड़ता है। दूर का देखने के लिए दूसरा चश्मा लगाना पड़ता है। कुछ लोग एक ही चश्मे में नीचे की तरफ ‘कट’ लगाकर पढ़ने का और इसी चश्मे से आंख ऊपर करके दूर तक देखने का इंतजाम कर लेते हैं। आजकल ‘प्रगतिशील चश्मे’ भी आ गए हैं। इन चश्मों से अगर आप नजदीक से देखेंगे तो भी साफ-साफ दिख जाएगा और दूर का देखेंगे तो भी दिख जाएगा। प्रगतिशील चश्मा इस समय सबसे अच्छा माना जाता है। बस इतना जरूर है कि शुरू में महीने-दो महीने यह लगाने वाले व्यक्ति के लिए परेशानी पैदा करता है। फिर धीरे-धीरे ऑंखें अभ्यस्त हो जाती हैं और जिस प्रकार से हम बिना चश्मे के परिदृश्य को देखते थे, ठीक उसी प्रकार हम सहज रूप से चश्मा लगाकर चीजों को देखते रहते हैं।
मैंने तो खैर अभी नया-नया चश्मा बनवाया है। सच पूछो तो पहन कर चलने में भी असहज महसूस करता हूॅं। पता नहीं लोग क्या कहेंगे ? लेकिन जो लोग लंबे समय से चश्मा पहन रहे हैं, उनका कहना है कि उन्हें अब पता भी नहीं चलता कि चश्मा नाक पर टिका हुआ है अथवा जेब में रखा हुआ है।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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