“नजरे”
ऩजरों से नजरें मिली, वो मुस्कुरा गया
उसका यूँ मुस्कुराना, मेरा दिल धडक़ा गया
नज़रों का नज़रों से यूं मिलना
जानेमन, यूँ सितम ढ़ा गया
नजरों ने नज़रों से क्या बात की
खुमार बन, नशा सा छा गया
दिल की भाषा नज़रे ही समझती हैं
मेरा दिल गैर की पनाहो में आ गया
दिन का चैन कहीं गुम हो गय़ा
रातों को भी विराम नहीं पाती हूँ
आईने में “शकुन” खुद को निहार शर्माती हूँ
सुर्ख होते गालों को, पल्लू में छुपाती हूं
कहीं जमाने की नजर ना लग जाये
य़ही सोच-सोच घबराती हूँ
तुम्हारे छूने के ख्याल मात्र से
मैं सिहर- सिहर जाती हूँ
तुम्हें ही ढूंढ़ती रहती हैं ये नज़रे
एक पल भी सुकून नहीं पाती हूँ
तुम्हारे आने की आहट मात्र से
पंखुरी से गुलाब बन जाती हूँ |
– शकुंतला अग्रवाल, जयपुर