नई पहचान
वो बोले हमसे
क्या खोला है तुमने
फेसबुक अकाउंट?,
सुन कर हम चकराये
और थोड़ा सा घबराये
जानते थे बस पासबुक
और बैंक अकाउंट,
पर ये कौन सा है खाता
और इसमें क्या क्या जमा किया जाता ?
वो बोले न हो हैरान
बताते हैं तुम्हें इसी से मिलेगी
एक नई पहचान।
फिर एक कम्प्यूटर खरीदने
का प्रस्ताव आया
जिसे मैंने महंगा कहकर ठुकराया,
वो बोले ये है वो खाता
जो मोबाइल में भी खुल सकता
पर जमा इसमें नहीं होता पैसा,
मन की बातें यहाँ होतीं साझा
यहीं पनपता दोस्ती का रिश्ता,
नहीं बढ़ता इसमें धन
लाइक कमेंट का होता इसमें फन,
वाह वाह, बहुत खूब,
अति सुंदर जैसे मिलते कमेंट
धीरे-धीरे हो जाते मित्र सभी परमानेंट।
सुनकर हम हुए उत्साहित
भर गया भुजाओं में जोश
खुलवा डाला खाता
भर गया मित्रों से कोश,
पोस्ट करने लगे रोज़ मन की बातें
लाइक कमेंट से भरने लगे खाली खाते,
नहीं मिला कुछ
बेकार हुई बैंक पासबुक
भर गयी झोली जो खोला फेसबुक।
यहीं पर मिले कई
साहित्यकार
संपादकों से भी हो गया
साक्षात्कार,
बुलाने लगे कवि
पुस्तक विमोचन में
घूमने लगे हम
खुद के प्रोमोशन में,
बदल गए हम, हो गया नाम
मिल गई हमको नई पहचान,
अब नहीं कहलाते हम नीरजा
यही मिला फेसबुक से नतीजा,
अब हो गए हम जाने पहचाने
आने लगे लोग
पुस्तक की भूमिका लिखवाने,
घर के आंगन में
कुम्लाह रही थी जो नलिनी
खिली खिली है मित्र आपकी
जिसे सब कहते हैं ‘नीरजा कमलिनी’।
रचयिता–
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’