नई दिल्ली
बैठा हुआ था
पास
खिड़की के।
रहा था देख-
पथ पर जा रहे,
रोते कलपते चीखते
कुछ दीन-दुखियों को।
दिल नहीं माना
बढ़े ये डग स्वयम् ही।
किसी से पूछ ही बैठा
बताओ कौन है ये ?
हरिजन
यहाँ क्यों जा रहे हैं ?
ठौर कुछ पाने।
गिरा इनके दिये हंै,
झोंपड़े
सरकार ने।
क्यों ?
प्रश्न था फिर।
नहीं मालूम तुम्हें
ये राजधानी है।
नयी बस्ती यहां पर कुछ
अमीरों की बसानी है।’’
सुनी यह बात
कलेजा दहल आया।
कहा मन ने
मगर आज़ाद है हम।
एक ही मानव
मगर समता नहीं है।
एक ही मानव,
मगर ममता नहीं है।
आज मैं कहता –
सुनो हे कर्णधारों।
हमें मतलब नहीं,
चाहे भरो तुम आज,
दिल्ली को –
अमीरों से।
हटाते हो गरीबों को
हटाओ।
मगर इनको,
बिताने के लियें जीवन
कहीं कुछ ठौर तो दो।
है आज मानवता खड़ी
क्या चीखती है ?
मत हटाओ,
इन अभागों को –
अछूता मत बनाओ।
साथ में अपने –
इन्हें आगे बढ़ाओ।
आज की प्यारी
नयी दिल्ली बसाओ।