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29 Jul 2021 · 33 min read

नई जमीन

महर्षि बंद कमरे की खुली खिड़की पर अपने दोनों पैर आगे टेककर कुर्सी पर चिंतित बैठा हुआ था और आसमान को एक टक ऐसे देखे जा रहा था, जैसे आसमान में जाने का कोई रास्ता ढूंढ रहा हो। उसके बगल में रखी मेज पर बहुत सारी फिजिक्स की किताबें और पत्रिकाएं इधर-उधर रखी हुई थी और कुछ किताबें उसके बिस्तर पर भी बिखरी पड़ी थी। मेज के नीचे रखा कूड़ेदान कागजों के गोलों से भरा पड़ा था। कागज के ये गोले उसने हर बार साफ कागज पर कुछ लिखकर और फिर खिन्न होकर कागज को गोला बनाकर कूड़ेदान में फैंके थे।
उसका घर शहर के बाहरी इलाके में एक नई विकसित हो रही कॉलोनी के अंदर था । उस कॉलोनी में अभी ज्यादा घर नही बने थे । कुछ बने हुए घरों में लोग रह रहे थे तो कुछ बने हुए घर अभी तक खाली ही पड़े थे। नई कॉलोनी में कम घर होने के कारण ही महर्षि के आस पड़ौस के दोस्त भी नही थे और शहर से दूर होने के कारण उसके स्कूल-कॉलेज के दोस्त भी उसके पास तक नही आते थे। इसलिए महर्षि को यहां पर एकाकी जीवन जीने की आदत हो गयी थी। वैसे भी इस उम्र तक लोगों के दोस्तों की संख्या बहुत कम हो जाती है क्योंकि लगभग सभी यार-दोस्त अपने-अपने व्यवसाय-नौकरी और परिवार में व्यस्त हो चुके होते है। किन्तु महर्षि के पास व्यस्त होने के लिए अभी तक इन तीनो में से कुछ भी नही था। एक दो दोस्त बाकी थे, जिनकी शादी नही हुई थी, किन्तु वो भी अपने व्यवसाय में व्यस्त होते जा रहे।
कुर्सी पर बैठा महर्षि बहुत परेशान था क्योकि अभी तक उसके पास कोई भी नौकरी या व्यवसाय नही था। अब उसकी फिजिक्स में एम.फिल की डिग्री भी पूरी हो चुकी है और उसकी उम्र छत्तीस साल को पार कर कर चुकी थी। इसलिए हर दिन और हर छण नौकरी पाने की उसकी उम्मीद खत्म होती ही जा रही थी।
” महर्षि ने विज्ञान में स्नातक करने बाद आईएएस अधिकारी बनने की सोचा था। इसलिए स्नातक पूर्ण होने के बाद उसने बिना समय गवाएं ही तैयारी प्रारम्भ कर दी थी । हर बार अच्छे से तैयारी करके प्रतियोगिता में सफल होने की कोशिश की किन्तु हर बार एक ही परिणाम निकला। जब आईएएस प्रतियोगिता में उसे हर बार असफलता मिल रही थी तो उसने अन्य दूसरी नौकरीयों के लिए भी आवेदन शुरू किए । किन्तु उन सभी मे भी वह असफल ही रहा। इसप्रकार आईएएस की प्रतियोगिता में मिली हार ने उसके आत्मविस्वास को इतना नीचे गिरा दिया था कि वह अन्य प्रतियोगिताएं भी पास नही कर सका। अब उसको यकीन होना शुरू हो चुका था कि उसका कुछ नही होगा क्योंकि वह नौकरी के योग्य ही नही, उसमे वह काबिलियत नही, उसमे वह दृण निश्चय और जज्बा नही जो किसी प्रतियोगिता को पास करने के लिए चाहिए। इस प्रकार पूरी तरह से थका हारा हुआ महर्षि हर रोज अपने आप को ऐसे ही कोसता रहता। जबकि इस समय तक उसके ज्यादातर मित्र सरकारी अधिकारी बन चुके थे, जिनकी तश्वीरें वह अक्सर फेसबुक पर देखता रहता।
जब आईएएस प्रतियोगिता की उम्र निकल गयी तब महर्षि ने स्नातक से आगे की अपनी पढ़ाई आगे बढ़ाने की इस उम्मीद के साथ सोचा कि सायद उससे कोई नौकरी मिल जायेगी, किन्तु परास्नातक एवम एम.फिल होने के बाद भी उसके साथ फिर वही, “ठाक के तीन पात वाली” कहावत चरितार्थ रही अर्थात वह कोई नौकरी नही पा सका।
महर्षि नही समझ पा रहा था कि वह क्या करे..? अब उसका आत्मविस्वास इतना गिर चुका था कि जब भी वह कुछ करने की सोचता सबसे पहले उसके दिमाग मे उस काम के असफल होने के खयाल पहले आने लगते और फिर वह उस काम को करने से रुक जाता। उसने कई बार सोचा कि वह बच्चों के ट्यूशन शुरू कर दे किन्तु उसे लगता कि वह ट्यूशन में आये क्षात्रों के प्रश्नों के जबाब नही दे पाएगा। बच्चे उस पर हंसेंगे..! इसप्रकार महर्षि को अपने जीवन मे केबल और केबल अंधेरा ही नजर आता था ।
रोजगार स्तर पर असफल होने के साथ-साथ महर्षि प्रेम सम्बन्धो के स्तर पर भी असफल रहा । कॉलेज के समय और तैयारी के समय उसे कई बार एक तरफा प्यार हुआ था। किंतु उस एक तरफा प्यार में महर्षि अकेला ही तड़फा और अकेला ही रोया। और अंत में शीशे के सामने बैठकर अपने दुबले पतले शरीर और सूखे हुए चेहरे को देखकर खुद ही खुद को कोस लेता और फिर स्वयं ही अपना दिल तोड़कर सब कुछ भूलने का प्रयत्न करता। किन्तु उसने कभी भी किसी लड़की को उसके प्रति अपने दिल के एहसास बताने तक की कोशिश नही की। क्योकि वह खुद ही तय कर लेता था कि वह उसके लायक ही नही है क्योंकि वह लड़की बहुत खूबसूरत है जितना वह नही, उसके पास उतना पैसा भी नही और ना ही उतनी बड़ी बाइक जिस पर वह उसे घुमा सके।
” मिलाजुला कर देखा जाय तो महर्षि में बचपन से ही आत्मविस्वास की बहुत कमी थी। जिसका मुख्य कारण उसकी परिवरिश थी। जिसमे उसके पिताजी और माता जी के बीच अक्सर होने बाले झगड़े और पिताजी का अति सख्क्त व्यवहार बड़ी एक बजह थी। जिसकी वजह से महर्षि बचपन से ही घर के अंदर और घर के बाहर हमेशा अपने बहिन-भाइयों की तरह डरा डरा रहता था। उसके पिताजी उसे और उसके सभी भाई-बहिनों को पढ़ाई के लिए बहुत डाँट-फटकार लगाते थे। उसके पिताजी हमेशा उम्मीद करते कि वह अपनी क्लास में अब्बल रहे किन्तु वह ऐसा नही कर पाता। जिसके बदले उसके पिताजी उसे भला-बुरा कहते, बेज्जत करते, और कभी कभी मार भी लगा देते। इसप्रकार महर्षि ने अपने घर मे अपने अन्य भाई बहिनों के सामने यह स्थिति बहुत वर्षों तक महसूस की, जिसकी बजह से उसका आत्मविस्वास उसके शरीर की तरह दुबला-पतला ही रहा ..”
कमरे में कुर्सी पर बैठा महर्षि यही सब सोच रहा था कि उसके दिमाग मे एक विचार आया कि इंसान अपने पुराने समय को डिलीट क्यो नही कर सकता..? और अगर ऐसा हो जाये तो कितना अच्छा रहेगा। वह पुनः आईएएस की तैयारी करेगा और जो गलतियां की उनको नही करेगा।
इसप्रकार उसने सोचा कि अगर ऐसा नही हो सकता तो फिर जो व्यक्ति असफल है और दुखी है उसे तुरंत मर जाना चाहिए क्योंकि असफल और दुखी जीवन जीने से अच्छा है कि व्यक्ति मर जाये और नया जन्म लेकर पुनः एक अच्छा और सुविधा भोगी जीवन के लिए प्रयास करे। क्योकि मरना तो सभी को ही है, चाहे व्यक्ति सफल हो या असफल, स्वस्थ हो या अस्वस्थ । तो फिर असफल और अस्वस्थ व्यक्ति क्यो साठ-सत्तर-अस्सी साल का नर्कमय जीवन जिए..? और शारीरिक एवम मानसिक कष्ट भुगतता रहे। इससे अच्छा है कि वह अभी अपनी जीवन लीला समाप्त कर पुनः नया जन्म प्राप्त करे। और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसा करने में समाज का कोई नुकसान भी नही है बल्कि भलाई ही है। क्योंकि असफल और अस्वस्थ व्यक्ति से हर कोई परेशान होता है और वह परिवार,समाज,देश पर एक बोझ के समान होता है। वह जिंदा रहकर समाज की भलाई नही कर सकता किन्तु मर कर समाज की दिक्कतें जरूर दूर कर सकता है समाज के संसाधनों को योग्य व्यक्तियों के लिए छोड़ सकता है..”
आपनी इसी सोच से आगे बढ़ते हुए उसने कई बार आत्मदाह करने की कोशिश की किन्तु वह यह काम करने के लिए कभी हिम्मत नही जुटा सका..। क्योकि जब भी वह मरने की सोचता उसके दिमाग मे हर बार एक ही खयाल आता “चलो कुछ दिन और रुक कर देखता हूँ, सायद कोई रुका हुआ रिजल्ट आ जाये या फिर मेरा भाग्य बदल जाए और मेरे भी अच्छे दिन आ जाये..”। इसी आशा ने उसकी आत्महत्या और फिर एक नए जीवन पाने के विचार को बार-बार असफल कर दिया।
एक दिन महर्षि खाना खाकर अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था और फिजिक्स की पत्रिका पढ़ रहा था। तभी उसने फिजिक्स की एक संकल्पना “समानांतर ब्रह्मांड” पर एक लेख पढ़ना शुरू किया। उसने लेख में पढ़ा कि “हम जिस ब्रह्मांड में रहते है वह अकेला ब्रह्मांड नही है बल्कि इस जैसे अनेकों ब्रह्मांड मौजूद है। इसीप्रकार हम जिस पृथ्वी पर रहते है और जिस सौरमंडल में हमारी पृथ्वी है, वैसी ही पृथ्वी और वैसा ही सौर मंडल उन सभी ब्रह्मांडो में पाया जाता है.! इसीप्रकार हम भी अकेले नही बल्कि हम भी समानांतर ब्रह्मांड में मौजूद पृथ्वियों पर अपने विभिन्न प्रतिरूपों में मौजूद है। जब हम अजनबियों की किसी भीड़ में खड़े होते है तो अचानक हम किसी भी व्यक्ति के प्रति चाहे वह पुरुष हो या स्त्री ,बच्चा हो या बुड्ढा आदि के प्रति अनायास ही आकर्षित हो जाते है। जिसका कारण समानांतर ब्रह्मांड ही है क्योंकि हम भीड़ में जिसके प्रति अनायास ही आकर्षित हुए है वह जरूर किसी अन्य ब्रह्मांड की पृथ्वी पर हमारा करीबी होगा। इसीप्रकार हमारी कोई भी पसन्द केबल एक नही होती बल्कि बहुत होती है, जिनमे से कुछ हमको ज्यादा कुछ कम पसन्द होती है। उसका कारण भी समानांतर ब्रह्मांड ही है, क्योकि हमारी प्रत्येक पसन्द अन्य ब्रह्मांडों की पृथ्वी पर हमारे प्रतिरूप की पसन्द होती है। इसीप्रकार जब हम अपने कैरियर के बारे में सोचते है तो हम जिस जिस कैरियर को पाना चाहते हैं, वो सब के सब पा लेते है बस फर्क इतना है कि कोई उसे किसी ब्रह्मांड की पृथ्वी पर पाता है तो कोई उसे किसी अन्य ब्रह्मांड की पृथ्वी पर..”
महर्षि ने जब यह लेख पढ़ा तो वह कुछ सोच में पड़ गया.. और सोचने लगा कि अगर ऐसा है तो जरूर इन सामानान्तर ब्रह्मण्डों में हमारी पृथ्वी भी बहुत होगी और मेरे भी कई रूप होंगे । .इसका मतलब हुआ कि अगर में यहाँ इस पृथ्वी पर असफल हूँ तो मैं किसी अन्य पृथ्वी पर सफल जरूर हूंगा। और दूसरी बात मैंने दिन रात लगकर इतनी पढ़ाई की कि मेरे मित्र और गुरुजन सभी कहते थे कि प्रतियोगिता पास कर लेगा किन्तु नही कर पाया क्योकि किसी अन्य मेरे प्रतिरूप महर्षि ने मुझसे पहले यह प्रतियोगिता जरूर पास कर ली होगी..! इस विचार को पढ़कर एक पल के लिए महर्षि बहुत खुश हो गया कि मैं पूर्ण रूपेण असफल नही हूँ बल्कि मैं भी सफल हूँ। वस वह सफलता मुझे इस पृथ्वी पर नही बल्कि दूसरी पृथ्वी पर मिली है।
इस विचार से खुश होकर महर्षि ने अपनी कुर्सी खिड़की के पास खिसकाई और दिसम्बर की रात के झप्प अंधेरे में खिड़की खोलकर एकदम साफ आसमान को और उसमें टिमटिमाते तारों को देखता रहा। कभी कोई पुच्छल तारा टूटता दिखाई देता और कभी दूर आसमान में रंगबिरंगा बिखरा हुआ धुँआ। महर्षि अपनी नंगी आखों से ही इस सीमारहित ब्रह्मांड की गहराईयों को देखने की कोशिश करने लगा। वह सोच रहा था कि काश उसे कुछ अलग दिख जाए जिससे वह अन्य दूसरी पृथ्वी पर स्थित सफल महर्षि प्रतिरूप को देख सके ,किन्तु ऐसा नही हुआ। और इस असफल आशा के साथ महर्षि खिड़की बन्द कर पुनः बिस्तर पर सो गया..।
अब महर्षि यही सोचता रहता कैसे वह उस पृथ्वी पर जाए जिस पर वह आईएएस बना हुआ है। इसके लिए वह फिजिक्स के नए नए विचार पढ़ता और उसमें भी सबसे ज्यादा क्वांटम फिजिक्स के। उसे अब फिजिक्स में बहुत मजा आने लग गया था । इसीक्रम में उसने फिजिक्स की नई परिकल्पना वर्महोल के बारे में भी पढ़ा। जिसमे बताया गया था कि पृथ्वी पर एलियन वर्महोल के द्वारा आते जाते है। इसलिए ही वो इतनी तेज गति से आते है और आखों के सामने ही गायब हो जाते है..!
परिकल्पना में बताया गया था कि वास्तव में मनुष्य के पास अभी तक कोई भी ऐसा यान नही है जो प्रकाश की चाल से चल सके। इसीकारण इंसानी सभ्यता को इतने वर्ष लग गए ब्रह्मांड के अन्य ग्रहों तक पहुंचने एवम उन्हैं जानने में। साथ ही यह ब्रह्माण्ड इतना बढ़ा और रहस्यमयी है कि अगर मनुष्य प्रकाश गति से चलने वाले यान बना भी ले तो भी उनको एक ब्रह्मांड के एक बड़े हिस्से को देखने मैं लाखो साल लग सकते है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी तकनीकी का विकास करे कि वह दिक-काल को मोड़ दे जिससे ब्रह्मांड के दो छोरो की दूरी कम हो जाएगी और फिर एक वर्म होल बनाकर वह बहुत जल्दी और आसानी से ब्रह्मांड के उन दो छोरों की यात्रा कर सकेगा। जैसे एक छोटी सी सुई सौ मीटर कपड़े के दोनों छोरो में एक साथ छेदी नही जा सकती, जबकि उस कपड़े को मोड़कर अगर दोनों छोरो को एक साथ पकड़ लें तो वह दोनों छोरों को एक साथ छेद सकती है बिल्कुल इसीप्रकार दिक-काल में वर्महोल बनाकर उसके कई छोरो तक मनुष्य आसानी से यात्रा कर सकता है..”
वर्म होल की यह परिकल्पना महर्षि को अच्छी तरह से समझ आ गयी थी। अब वह दिन रात केवल यही सोचता रहता कि वह कैसे वर्म होल बनाये जिससे वह समानांतर ब्रह्मांड की अन्य पृथ्वियों तक पहुँच सके। अब वह इस पृथ्वी के असफल महर्षि को किसी अन्य पृथ्वी के सफल महर्षि प्रतिरूप से प्रतिस्थापित करना चाहता था। क्योकि वह समझ चुका था कि “व्यक्ति के दिमाग की हर सम्भावना किसी ना किसी समानांतर ब्रह्मांड में जरूर घटित हो रही है..” !
इसलिए अब उसने ठान लिया कि वह दिन रात कड़ी मेहनत करके कैसे भी ना कैसे वर्महोल का निर्माण करना सीखेगा और फिर जिस समानांतर ब्रह्मांड की पृथ्वी पर महर्षि आईएएस है उससे वह स्वयं को प्रतिस्थापित कर देगा। अर्थात वह उसी पृथ्वी पर चला जाएगा और उसको इस पृथ्वी पर भेज देगा । जिससे प्रकृति का संतुलन भी नही बिगड़ेगा और उन्हीं के लोगों में वह पद के साथ सम्मान की जिंदगी जीयेगा।
अपने इस द्रढ़ निश्चय के साथ ही महर्षि ने उसी रात से फिजिक्स की पढ़ाई प्रारम्भिक ज्ञान के साथ शुरू कर दी। वह जानता था कि यह मुकाम आसान नही है और इसमें सफल होने की प्रतिशत मात्रा खाली सफेद कागज पर पेन के एक बिंदु के बराबर है जबकि असफलता की मात्रा शेष बचे कागज के बराबर है। फिर भी उसने अपने मन में अर्जुन की भांति सफेद कागज के उसी बिंदु को ही देखा और शेष कागज को भूल ही गया।
इसप्रकार कहते है कि “किसी के भविष्य का निर्धारण वर्तमान के निर्णय से ही होता है.”, यही अब महर्षि के भविष्य के लिए होना शुरू हो चुका था। अब महर्षि ने प्रकृति के एक अन्य रहस्य की खोज करना जी जान से शुरू कर दिया था। किंतु यह सत्य ही है कि जितना बड़ा उद्देश्य होता है, उतनी बड़ी कुर्बानी भी व्यक्ति को देनी होती है।
महर्षि के द्वारा प्रकृति को मिली चेतवानी को रोकने के लिए प्रकृति ने भी योजनाएं बनाना शुरू कर दिया क्योकि प्रकृति भी जानना चाहती थी कि महर्षि इस लक्ष्य के लिए कितना समर्पित है। इस कुर्बानी के लिए महर्षि कितना तैयार था समय के तराजू पर यह तौलना बाकी था।
इसप्रकार महर्षि ने एक महीने के अंदर फिजिक्स की बहुत सारी किताबें पढ़ डाली थी। अब उसे ये सभी किताबें पहले से ज्यादा अच्छी तरह से समझ आ रही थी और अब उसे ऐसा लग रहा था कि एक बार पढ़ने पर ही उसे कोई भी किताब अच्छे से समझ आ जाती है और उसके दिमाग में छप जाती है। इसप्रकार महर्षि लगातार अपनी योजना पर दिन रात मेहनत कर रहा था।
एक दिन महर्षि अपनी छत पर धूप में टहलते टहलते जानेमाने भौतिक विज्ञानी स्टीफेन हॉकिंग्स की किताब “थ्योरी ऑफ एवरीथिंग” पढ़ रहा था। तभी उसने देखा कि उसके बगल में खाली पढ़े घर की छत पर एक बेहद खूबसूरत लड़की खड़ी हुई है। उस छड़ के लिए उसने किताब पढ़ना रोक दिया और उसे देखते हुए सोचने लगा कि ” दिसम्बर में तो यह घर खाली पड़ा था, अब यहाँ पर यह लड़की कैसे आ गयी..? उसने छत से उस घर के दरवाजे की तरफ देखा तो, दरवाजे पर फूलों की माला लगी हुई थी, और अच्छे से साफ सफाई भी हो चुकी थी और सड़क के दूसरी तरफ एक महंगी एसयूवी कार भी खड़ी थी। अतः वह इससे समझ गया कि इस घर में उसके मकान मालिक ने रहना शुरू कर दिया है। अब वह सोचने लगा कि पिछले एक डेड महीने वह कितना व्यस्त रहा है कि उसे पता भी नही चला और सब हो भी गया। तभी उस छत पर खड़ी लड़की ने महर्षि की तरफ हैलो-हैलो जोर से बोला..
-महर्षि को पहले तो लगा कि वह किसी और को आवाज़ लगा रही है किन्तु जब उस लड़की ने अपनी उंगली से उसकी तरफ इशारा किया तो वह एक बार को चौंक गया कि वह उससे ही हैलो कर रही है, मगर क्यो..?
घबराते हुए और एक हाथ मे किताब पकड़े महर्षि छत के उस कौने पर जाने लगा, जिस कौने पर वह लड़की खड़ी थी। वह उस लड़की के जैसे जैसे नजदीक जा रहा था लड़की की मुस्कुराहट वैसे-वैसे ही बढ़ती जा रही थी। और वह जैसे ही उस कौने पर पहुंचा तो लड़की ने खिलखिलाते हुए अपना हाथ उसकी तरफ आगे बढ़ाते हुए (हाथ मिलाने बाले इशारे के साथ) कहा-“हैलो, मेरा नाम निहारिका है और मैं इस घर में रहती हूँ..”
-महर्षि ने भी डरते हुए और झिझकते हुए अपना हाथ उसके आगे ऐसे बढ़ाया जैसे उसके हाथ को वह खींच कर तोड़ ना दे..और अपने हाथ को उसके हाथ से हल्के से मिलाकर उसने कहा -” मेरा नाम महर्षि है..!” और यह कहकर चुप हो गया और दूसरी तरफ देखने लगा..
– निहारिका स्वभाव से चंचल और काफी खुले विचारों वाली लड़की थी। वह बचपन से ही लड़कों के बीच में रही थी अतः उसे किसी भी लड़के से मिलने में कोई झिझक महसूस नही होती थी। जिस कारण वह लड़कों से बातें करने में और लड़कों की तरह बातें करने में बड़ी सहज थी.. ! इसलिए उसने जब महर्षि को दूसरी तरफ देखते हुए देखा तो बोली- क्या उधर से मेरी मम्मी आ गयी है..?
-महर्षि के लिए यह सबाल और निहारिका का व्यवहार थोड़ा हँसाने और चौंकाने बाला था, इसलिए वह थोड़ा मुस्कुराया और बोला नही..
-निहारिका ने पूछा -फिर क्या है उस तरफ..?
-महर्षि ने भी पूछा – किस तरफ..?
-निहारिका बोली- जिस तरफ तुम देख रहे हो..?
– महर्षि पुनः हँस गया और बोला कुछ नही मैं तो बस ऐसे ही देख रहा हूँ..
-निहारिका बोली अरे तुम्हारे सामने पूरी गेलैक्सि(निहारिका शब्द का अंग्रेजी अर्थ गेलैक्सि होता है) खड़ी है और तुम इधर-उधर देख रहे हो..
-महर्षि चौंक गया और चौंकते हुए पूछा- पूरी गेलैक्सि किधर है..?
-निहारिका अपने माथे पर हाथ मारते हुए आश्चर्य से बोली- अरे तुम भी क्या लड़के हो यार..? हाथ में किताब पकड़ रखी है एक महान भौतिकशास्त्री की और मुझसे पूछ रहे हो गेलैक्सि क्या है..?
-निहारिका की बात सुन महर्षि अचरज में पड़ गया और वह समझ नही पा रहा था कि वह लड़की क्या बताना चाह रही है या फिर गेलैक्सि के बारे में पूछना चाह रही है..! इसलिए वह एकदम चुप रहा ।
– निहारिका हंसते हुए बोली- ओ हैलो क्या हो गया..? मैंने कोई दसवीं क्लास का सबाल पूछ लिया क्या..?
-महर्षि ,निहारिका की बात से पुनः अचरज में पड़ गया कि अब दसवीं क्लास का सबाल यहाँ कैसे बोल रही है.? क्या गेलैक्सि के बारे में दशवीं क्लास में पढ़ाया जाता है..?
इसलिए महर्षि ने निहारिका की बातों का बिना कुछ जबाब दिए ही निहारिका को वहीं पर छोड़ कर छत से उतरने के लिए सीढ़ियों की तरफ चल दिया..
-महर्षि को जाते देख निहारिका बोली – अरे क्या हो गया..? कहाँ जा रहे हो..? मैंने कुछ गलत बोल दिया क्या..? बिना कुछ जबाब दिए ही जा रहे हो..?
-किन्तु महर्षि ने उसकी किसी भी बात पर ध्यान नही दिया और आगे बढ़ता रहा और फिर छत से उतर कर अपने कमरे में कुर्सी पर बैठकर पुनः अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने लगा।
पढ़ते पढ़ते महर्षि को रात के बारह बज चुके थे। उसकी आँखें थकने लगी थी। इसलिए उसने थोड़ी देर के लिए अपने कमरे की खिड़की खोली और ठंडी-ठंडी हवा महसूस करने लगा..! तभी उसने देखा कि सड़क के उस पार निहारिका सिर पर लाल रंग का टोपा पहन कर एक हाथ से अपना फोन देखते हुए और एक हाथ से सिगरेट पीते हुए इधर उधर टहल रही है..निहारिका के इस अंदाज को देखते ही उसने उसे नजरअंदाज कर दिया और कुछ देर खिड़की से खुले आसमान को निहारने के महर्षि ने अपनी पढ़ाई पुनः शुरू कर दी। किन्तु कुछ देर बाद जब नीचे की सड़क से निहारिका के बड़ी जोर से हँसने की आवाज़ आयी तो वह एक पल के लिए चौंक गया और सोचने लगा कि बताओ आजकल की लड़कियां भी लड़कों की तरह मुँहफट और आवारा होती जा रही है। आवारा लड़कों की तरह ही बात करना,उनकी ही तरफ मुँह फाड़ कर हँसती हैं इत्यादि इत्यादि। अरे इनको ये सब समझना चाहिए कि ये कोई महिला शशक्तिकरण नही बल्कि यह तो महिला आवारा पुरुषिकरण है।
– शुबह हो गयी थी और अब महर्षि प्रतिदिन शुबह चार बजे से उठकर पढ़ाई में लग जाता था। इसप्रकार सुबह चार बजे से पढ़ते पढ़ते महर्षि को सुबह के ग्यारह बज चुके थे। तभी उसके दरवाजे पर निहारिका आयी और उसकी मम्मी से हैलो करके सीधे उसके कमर की तरफ आ गयी और कमरे का दरवाजा खोल कर खड़ी हो गयी..
-निहारिका को देख महर्षि बुरी तरह से चौंक गया और एक डर के साथ अपनी कुर्सी पर सिकुड़ कर बैठ गया किन्तु निहारिका उसके रूम को ऐसे देखने लगी जैसे वह कोई अजायबघर देख रही हो। निहारिका ने देखा कि उसके कमरे में जगह जगह फिजिक्स, इंजीनियरिंग और कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर की किताबें इधर उधर बड़ी संख्या में बिखरी पड़ी है। एक कौन में मेज पर स्टील का कुछ सामान और मशीन के कलपुर्जे रखे हुए है और बिस्तर पर एक दो फ़ोन और टैबलेट रखे हुए है । इस सब को देखकर निहारिका चौंकते हुए बोली-
अरे यार..! तुम क्या हो..?
-महर्षि ने झिझकते हुए पूछा..मतलब..?
– महर्षि का इतना ही कहना था कि निहारिका सीधे उसके बगल में आकर खड़ी हो गयी और उसके कंधों पर हाथ रखकर बोली – कमरे का ये क्या हाल बना रखा है..? इतना बुरा हाल और इतनी किताबें तो किसी पुस्तकालय में भी नही होती..? तुम क्या वैज्ञानिक हो ..? मेरा मतलब भौतिक विज्ञानी हो..? या फिर सॉफ्टवेयर इंजीनियर या फिर कोई हैकर..? यह कहकर निहारिका अपनी खुली हंसी से हँसने लगी..!
– निहारिका का प्रश्न सुन महर्षि एक पल के लिए चौंक गया और सम्भल कर बोला नही-नही मैं वैज्ञानिक नही हूँ..। भौतिकी की और इसप्रकार की सभी किताबें पढ़ना मेरा शौक है। इसलिए इतनी सारी किताबें रखी हुई है और मेरे पास इन किताबो को रखने के लिए कोई व्यवस्थित जगह नही है इसलिए ये हर जगह बिखरी पड़ी हुई है..।
– निहारिका ने खिलखिलाकर हंसते हुए कहा- डरो मत महर्षि मैं तो यह सब देखकर तुमसे बहुत प्रभावित हो गयी हूँ कि तुम कितने पढ़ने वाले लड़के हो यार..! इसलिए अब मुझे समझ आ गया है कि तुम उस दिन छत पर मेरी बातों को अनसुना कर क्यो चले आये थे..!
-महर्षि ने झिझकते हुए कहा नही..नही, मैं तो वस ऐसे ही चला आया था क्योकि मेरी मम्मी मुझे आवाज़ दे रही थी..।
-निहारिका पुनः हंसी और बोली चलो आज तुम्हारी मम्मी तुम्हेँ आवाज़ नही देगी क्योकि मैं पहले ही उनसे मिलकर ही आयी हूँ और फिर उनसे ही तुम्हारे कमरे में आने की अनुमति लेकर आई हूँ..। अब ये बताओ मैं तुम्हारे बिस्तर पर बैठूँ या फिर कुर्सी पर..?
-महर्षि एकदम चौंक गया और बोला मेरे बिस्तर पर बैठ जाओ..
-निहारिका जोर से ठहाका लगाकर हँसी और बोली अरे मैं कुर्सी से तुमको हटाकर नही बैठती बल्कि तुम्हारे ऊपर ही बैठ जाती..
-महर्षि चौकाने बाली हल्की हंसी में मुस्कुराया और चुप रहा और अपने हाथों में खुली हुई किताब को पढ़ने लगा..।
-निहारिका बोली अरे यार तुम बहुत बोरिंग हो ,तुम्हारे सामने तुम्हारे कमरे में तुम्हारे बिस्तर पर एक बेहद खूबसूरत और हशीन लड़की बैठी हुई है और तुम उसमें अपने लिए मौका ढूढ़ने के बजाय बार बार इस बोरिंग भौतिकी की किताब में पता नही क्या पढ़ रहे हो..?
-महर्षि हल्के से मुस्कुराया और बोला कुछ नही वस ऐसे ही..अगर तुमको कुछ कहना है तो बोलो..
-महर्षि की बात और उसके नजरअंदाज करने बाले तरीके को देखकर निहारिका हल्के से गुस्से में आ गयी और बोली-“क्या बात है तुम्हारी गर्ल फ्रेंड ने मना किया है कि किसी और लड़की से बात नही करनी है..?
-महर्षि ने सामान्य से उत्तर में जबाब देते हुए कहा नही मेरी कोई गर्लफ्रेंड नही है..?
-निहारिका हल्की सी मुस्कुराई और बोली हाँ इन किताबों से बाहर निकालोगे और जिंदगी को असलियत में जीओगे तभी तो कोई गर्लफ्रैंड बनेगी जनाव, बीबी भी छोड़ कर भाग जाएगी..।
-महर्षि ने उसके व्यंग का कोई जबाब नई दिया और वह पुनः उसी अंदाज में उसके सामने बैठा रहा..
-इसबार निहारिका का गुस्सा और भी ज्यादा बढ़ गया और बोली क्या तुम नामर्द हो..? सायद इसलिए ही तुमको लड़किया अच्छी नही लगती..?
-महर्षि ने चेहरे पर सामान्य भाव रखते हुए निहारिका के ब्रह्मास्त्र प्रश्न को अपने एक शब्द के उत्तर से धरासाई कर दिया और कहा..” नही..”
– निहारिका को महर्षि का यह अंदाज बिल्कल भी पसन्द नही आया और उसने बैठे बैठे उसमें एक थप्पड़ रख दिया और गुस्से से उठकर कमरे से बाहर चली गयी..
-महर्षि ने उसके थप्पड़ का कोई जबाब नही दिया और उसने उस छड़ को ऐसे भुला दिया जैसे कुछ हुआ ही नही था। और पुनः अपनी पढ़ाई में जुट गया। इस घटना के बाद निहारिका ने कभी भी महर्षि से सम्पर्क नही किया और ना ही महर्षि को वह कभी दिखी। और इस बात का महर्षि को भी कभी कोई अफसोश भी नही हुआ।
इसप्रकार पढ़ाई करते करते महर्षि को पूरा एक साल बीत चुका था और उसने उसी पढ़ाई से सीखते हुए हाथ में बंधने बाली घड़ी जैसा एक यंत्र भी तैयार कर लिया था। और अब वह उसी यंत्र के द्वारा ही वर्महोल बनाने वाला था।
“महर्षि ने उस यंत्र में सम्पूर्ण ब्रह्मांड को तीन सौ साठ डिग्री में बांट दिया था। जिसमें प्रत्येक डिग्री ब्रह्मांड के किसी एक कोण के सम्पूर्ण गुरूत्वाकर्षण को चिन्हित करती थी।
“वास्तव में गुरुत्वाकर्षण बल ब्रह्मांड के चार प्रमुख बलों में एक प्रमुख बल है। यही बल ब्रह्माण्ड में सबसे ज्यादा दूरी तय करता है और इसकी गति भी प्रकाश की गति के बराबर है। किंतु इन चारों बलों में सबसे कमजोर बल भी यही होता है..”
महर्षि जब इस यंत्र में डिग्री चिन्हित करने बाली सुई को किसी एक डिग्री पर सेट करता और फिर उस यंत्र को चालू करता है तो उस डिग्री पर उपस्थित गुरुत्वाकर्षण बल के सभी कण अर्थात ग्रेविटोन्स को वह यंत्र अपनी और खींचना शुरु कर देता है। यह खिंचाव इतनी जोर से होता कि स्पेस-टाइम(दिक-काल) मे पहले कर्व बनता और फिर यह कर्व एक वर्म होल में बदल जाता । और फिर जब महर्षि उस होल के मुहाने पर खडे होकर उस यंत्र को बंद कर देता तो गुरुत्वाकर्षण के खिंचे हुए सभी ग्रेविटोन्स कण एक साथ उस वर्म होल को पुनः भरने के लिए प्रकाश की गति से आगे बढ़ते है और फिर जो भी व्यक्ति/वस्तु उस मुहाने पर होती वो उन कणो के साथ होल के अंदर प्रकाश गति से बढ़ती जाती। और फिर वह व्यक्ति/वस्तु वहाँ पर पहुंच जाता जहाँ की डिग्री उस यंत्र में सेट की थी..।
इसप्रकार महर्षि इस यंत्र की सहायता से दिक-काल मे वर्म होल बनाकर लाखो-करोड़ों प्रकाश वर्ष की दूरी कुछ ही सेकेंड में पूरी कर सकता था। इस यंत्र की एक अन्य खासियत यह भी थी कि इसमें पृथ्वी जैसे ग्रहों बाले ब्रह्मांड की ही डिग्री सेट हो सकती थी..”
इसप्रकार महर्षि ने पूरा एक साल से ज्यादा का समय लगाकर और दिन-रात मेहनत करके यह यंत्र बनाने में सफलता हासिल कर ली थी। किन्तु अब इस यंत्र का परीक्षण करना बाकी था। महर्षि इस यंत्र के परीक्षण को लेकर दो प्रकार से डरा हुआ था कि कहीं इस यंत्र ने काम नही किया तो उसकी पूरी मेहनत खराब हो जाएगी और इसका आईएएस बनने का सपना फिर से समाप्त हो जाएगा और यदि उसने काम किया तो ऐसा ना हो कि वह किसी बड़ी समस्या में फंस जाए..! इसलिए यंत्र बनाने के सात दिनों बाद भी वह उसका परीक्षण नही कर पाया था।
एक दिन वह इसी यंत्र के परीक्षण के बारे में सोच रहा था कि उसने सड़क पर घूमते हुए निहारिका को देखा। तब उसने सोचा क्यों ना इस यंत्र का परीक्षण उसी के सामने किया जाय। हालांकि निहारिका को लेकर उसके मन में कोई विचार नही था फिर भी उसने ऐसा सोचा। इसलिए पहले उसने अच्छे से कपड़े पहने और फिर एक बैग में अपनी जरूरत का छोटा-मोटा सामान लिया और दाएं हाथ मे एक घड़ी बांधी और बाएं हाथ मे वह यंत्र भी घड़ी की भांति बांध लिया और नीचे पहुंच गया जिस ओर निहारिका टहल रही थी। इतना इन्तजाम उसने इसलिए किया कि सायद यह यंत्र काम कर गया तो वह जहाँ भी पहुँचे उसके साथ उसकी जरूरत का सामना जरूर होना चाहिए। भले ही महर्षि के मन में उस यंत्र की कारगरता को लेकर कुछ दुविधा थी किन्तु उसके आत्मविस्वास को उस यंत्र की कारगरता पर पूर्ण विस्वास था।
इसलिए महर्षि अपनी जरूरत का सामान बटोरकर नीचे सड़क पर जाकर ऐसे खड़ा हो गया जैसे वह निहारिका को देख ही नही रहा हो और फिर निहारिका का ध्यान अपनी और खींचने के लिए उसने वहीं पर हल्की-फुल्की उछल-कूद शुरू कर दी। मगर निहारिका ने उसको पहले ही देख लिया था और उसे देखकर मन ही मन थोड़ी खिन्न भी हो गयी। इसलिए उसने उसे जानबूझकर नजरअंदाज किया किन्तु जब वह अच्छे से तैयार होकर बैग लटका कर बीच सड़क पर उसके टहलने बाले रास्ते मे खडा होकर उछल कूद करने लगा तो अब उसे वह नजरअंदाज नही कर पाई और उसे देखने लगी..। महर्षि को यह काम करता हुआ देखकर निहारिका को बहुत आश्चर्य हुआ कि ये कर क्या रहा है..? पहले तो उसे हंसी आयी और लगा कि सायद एक सवा साल बाद वह उसे रिझाने की कोशिश कर रहा है, किन्तु जब महर्षि दूसरी तरफ देखकर ही उछल-कूद में व्यस्त रहा तो उसे लगा जरूर कुछ गड़बड़ है। इसलिए वह जल्दी से उसके पास गई और उसके सामने जाकर खड़ी ही गयी..! और महर्षि भी यही चाहता था..!
निहारिका ने उसे बिना रोके, हँसते हुए पूछा क्या हो गया महर्षि सब ठीक तो है..? क्यो इतना व्यायाम कर रहे हो और वो भी पीठ पर बैग लटकाकर..।
“एक बार को तो निहारिका को उसपर प्यार आ गया और उसे लगा कि अगर आज ये मुझे मनाता है तो मैं आसानी से मान जाऊंगी..”
निहारिका को सामने खड़ा देख और उसे रोकने के लिए कहता देख महर्षि बिना कुछ बोले रुक कर वहीं पर खड़ा हो गया और फुली हुई सांसों को शांत करने के लिए घुटनो पर दोनों हाथ लगाकर झुक कर खड़ा हो गया। इसपल निहारिका भी उसे वस देखती रही और उसके बोलने का इन्तजार करती रही। जब महर्षि की सांसें सामान्य हो गयी तो महर्षि सीधे खड़ा हुआ और उसने देखा कि उसे देखकर निहारिका मुस्कुरा रही है। इसलिए पहले वह निहारिका की तरफ देखते हुए पीछे दो कदम चला और निहारिका से लगभग तीन से चार कदम दूर जाकर खड़ा हो गया। और फिर महर्षि अपने दोनों हाथों की कलाइयों को अपनी आंखों के पास लाया और फिर एक हाथ से उसने उस यंत्र में डिग्री सेट की और फिर उस हाथ को आगे बढ़ाया जिसमे यंत्र पहना हुआ था और फिर तुरन्त ही दूसरा हाथ आगे बढ़ाकर उस यंत्र की बटन को दबा दिया। बटन दबाते ही एक छण के लिए उस स्थान पर बहुत ही ज्यादा दबाब महसूस हुआ और दूसरे छण महर्षि ने उस यंत्र की बटन को बंद कर दिया। बंद करते ही महर्षि अपने स्थान से गायब हो गया।
यह देखकर निहारिका चौंक गयी..! जिसका प्रभाव उस पर इतना हुआ कि कुछ पल के लिए वह वेसुध हो गयी। और जब अचेतन अवस्था से चेतन अवस्था मे लौटी तो उसकी हालत पागलों जैसी हो गयी..!क्योकि वह जोर जोर से चिल्लाने लगी महर्षि..महर्षि..महर्षि… और फिर भाग कर उस स्थान पर बैठ गयी जहाँ पर से महर्षि गायब हुआ था। और उसे ऐसे ढूढ़ने लगी जैसे कोई व्यक्ति जमीन पर खोई हुई सुई को ढूंढता है। निहारिका की मानसिक स्थिति ज्यादा खराब होती उससे पहले ही महर्षि वहाँ पर पुनः आ गया और निहारिका को देखकर उसे लगा कि इसके दिमाग को जरूर मेरी तकनीकी को देखकर झटका लगा है। इसलिए पहले वह उसके पास गया और उसे खड़ा किया। निहारिका महर्षि को देखकर अपने दिल के अरमानों को संभाल नही पायी और जैसे ही महर्षि ने उसे खड़ा किया वैसे ही वह उससे चिपट कर रोने लगी..। और कहने लगी तुम कहाँ गायब हो गए थे..? मैं तो बहुत ज्यादा डर गयी थी..!
महर्षि ने उसको उस भौचक्की हुई अवस्था से बाहर निकाल कर उसे शांत किया और बोला मुझे कुछ नही हुआ है। तुम क्यो परेशान हो रही हो.. ? तुम अपने घर जाओ तुम क्यो आयी हो यहाँ पर..?मैं तो अपनी पढ़ाई से सम्बंधित एक प्रयोग कर रहा हूँ ,वस..और तुम हो कि जबरदस्ती मेरे गले पड़ रही हो..!!!
महर्षि की बात सुन निहारिका गुस्से से आग बबूला हो गयी और उसको बत्तमीज कहते हुए उसने उसके गाल पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया और फिर अपने घर तेज़ी से भगति हुई चली गयी..। निहारिका के थप्पड़ का महर्षि पर कोई असर नही हुआ और वह पुनः उसी सामान्य अवस्था मे आ गया और पुनः उसने उस यंत्र को पुनः उसी डिग्री पर घुमाया और पुनः उसी एक नई पृथ्वी पर पहुंच गया। जहां पर उसके सामने ना तो निहारिका थी और ना ही वह स्थान और ना ही वह कॉलोनी जिसमे उसका घर था..!
यह जमीन देखने मे तो बिल्कुल उसको वैसी ही लग रही थी, जैसी उसकी पृथ्वी थी। वैसे ही बादल थे, वैसी ही धरती और उसकी मिट्टी थी, वैसे ही पेड़ पौधे और जमीन पर बहता हुआ पानी था और आसपास अगल बगल में शोर मचाते हुए पंक्षी.. सब कुछ वैसा ही था किंतु जमीन एकदम नई थी जिसके लिए महर्षि के मन में एहसास भी नए थे और उमंगे भी नई थी.। इस नई जमीन पर आकर एक नए एहसास के साथ महर्षि बहुत ज्यादा खुश हुआ और उस नई जमीन पर उछल कूद करता हुआ सब आसपास की चीजों को देख रहा था और बार-बार मिट्टी को हाथ मे लेकर बहती हुई हवा के साथ उसे उड़ा रहा था। महर्षि की अबतक की जिंदगी का यह एक ऐसा पल था जिसमें वह सबसे ज्यादा खुश था।
” वास्तव में यह खुशी इस वजह से तो थी कि वह एक नई जमीन पर आ गया है किंतु इस बजह से यह और ज्यादा बढ़ गयी थी कि उसने दृढ़ संकल्पित होकर पहली बार जो मेहनत की थी, उस मेहनत का उसे सफल परिणाम मिला था , ऐसा उसके साथ पहले कभी नही हुआ। कठिन मेहनत करने बाद भी वह हमेशा असफल ही रहा। सदैव असफल रहने बाले व्यक्ति के लिए सफलता, जिसे वह चाहता है, का होना एक नए जीवन के समान है। सफलता के लिए पिपाशे व्यक्ति के लिए खाना-पीना और सभी प्रकार की एसो-आराम युक्त जीवन, सिर्फ जीवन काटने के साधन मात्र बनकर रह जाते है ना कि जीवन जीने के साधन बनते। असफल व्यक्ति सफलता के लिए इस प्रकार लालायित रहता है जैसे तपती गर्मियों की धरती सावन के मेघो के लिए होती है, जैसे ऊंचे ऊंचे पहाड़ों से निकली नदिया सागर से मिलने के लिए रहती है ,जैसे लाइलाज बीमारी से ग्रसित मरीज दवा की खोज के लिए रहता है..” और आज ऐसी ही सफलता का स्वाद महर्षि ने चखा था। इसलिए आज महर्षि बहुत खुश था और अपनी सभी कुंठाओं और दुख दर्दो को छोड़कर और वह वहाँ के लोगों की उसके प्रति सोच से बहुत दूर चला आया था। उन सभी को वहीं पर छोड़कड जो उससे नफरत करते थे और जिनसे वह बहुत डरता और घबराता था। कुछ समय तक इसी खुशी के साथ झूमने के बाद महर्षि ने सोचा चलो अब मैं इस स्थान को देखता हूँ और अपने प्रतिरूप को ढूंढता हूँ..!
महर्षि ने अब अपने आसपास को दिमाग से देखना शुरू किया अभी तक वह केवल दिल से ही देख रहा था और खुशी से झूम रहा था। उसने देखा कि वह एक कम सघन जंगल से गुजरने वाले रास्ते पर खड़ा है। उसके आसपास बड़े बड़े पेड़ लगे हुए है। जिसमे नीम,पीपल,जामुन,आम,बरगद, अमरूद इत्यादि के पेड़ है। उसने अब वहाँ से आगे की तरफ बढ़ना शुरू किया और सोचा सायद इसी रास्ते से यहाँ के लोग आते जाते होंगे। इसी सोच के साथ वह आगे बढ़ रहा था कि अचानक उसे कुछ लोगों की आवाज़ सुनाई दी । इस आवाज़ को सुनकर महर्षि एक साथ रुक गया और रास्ते से हटकर जंगल मे एक पेड़ के पीछे जाकर छुप गया। अब वह आवाज़ कभी आ रही कभी रुक रही थी। यह सुनकर महर्षि को लगा कि जरूर यही कहीं आसपास कुछ लोग आपस में बातें कर रहे हैं। इसलिए उसने धीरे धीरे छुप छुप कर उस तरफ जाना शुरू कर दिया जिस तरफ से आवाज़ आ रही थी..। छुप छुपाकर महर्षि उस आवाज़ तक पहुंच गया और फिर कुछ कदम आगे बढ़ाता उससे पहले ही उसे तीन व्यक्ति दिखे, जिन्होंने किसानों के कपड़े पहने हुए थे। तीनों ने सफेद रंग की मैली कुचैली बनियान और निक्कर के बराबर की लगोंटी पहने हुए थी। तीनो नीम के पेड़ की नीचे एक पैर पर दूसरा पैर रखकर लेटे हुए थे। महर्षि चुपके चुपके उनके पास गया और उनके चेहरे को देखने की कोशिश करने लगा। किन्तु उन तीनों के सिर पर सफेद रंग का कपड़ा बंधे होने के कारण और लेटे हुए होने के कारण वह उनका चेहरा साफ साफ नही देख पा रहा था। इसलिए वह एक पेड़ के नीचे उग रही झाड़ियों में छुपकर बैठ कर उनकी बातें सुनने लगा और इन्तजार करने लगा कि वो जब उठकर बैठेंगे तो वह उनके चेहरे को देखेगा..!
वो तीनो व्यक्ति आपस में एक उलझी हुई सी भाषा मे बातें कर रहे थे। जो भाषा उसने अपनी पृथ्वी पर कभी नही सुनी थी। उन तीनों व्यक्तियों की भाषा पृथ्वी वासियों की भाषा से अलग जरूर थी किन्तु कंठ से निकलने बाले स्वरों का दर्द वैसा ही था जैसा पृथ्वी बालों जैसा पृथ्वी वालों का होता है। इसलिए उनकी बात चीत से महर्षि को महसूस हो रहा था कि वो जरूर किसी दुखद स्थिति में हैं क्योकि बातों के बीच-बीच में उसमें से एक व्यक्ति बार बार रो रहा था। और ऐसे रो रहा था जैसे उसने कोई अनजाने में बड़ा गलत काम कर दिया हो और उसकी सजा उसे अब मिलने बाली हो ,जिस सजा से वह बहुत डरा हुआ हो..। उनकी इस स्थिति को महसूस कर महर्षि मन ही मन स्वयं से कहने लगा “बताओ ब्रह्मांड बदल गया, पृथ्वी बदल गयी किन्तु इंसानों के शोषण का तरीका नही बदला..यहाँ पर भी उसी प्रकार का शोषण और उसी प्रकार का दर्द..”
महर्षि यही सब सोच रहा था कि तीनों लेटे हुए व्यक्तियों में से बीच मे लेटा हुआ व्यक्ति कुछ बोलते हुए और रोते हुए खड़ा हो गया और उन दोनों की तरफ बारी बारी से हाथों से इसारा करते हुए कुछ कहने लगा..
जब महर्षि ने उस उत्तेजित होकर खड़े हुए व्यक्ति को देखा तो वह एक पल के लिए भौंचक्का रहा गया। और उसे देखता ही रहा और फिर अपने चेहरे पर अपने दोनों हाथों को फेरने लगा। क्योकि उस आदमी का चेहरा हूबहू महर्षि जैसा चेहरा था, वही कद काठी थी। वस कपड़ों से गंदा था..। यह देखकर महर्षि बहुत अचंभित तो हुआ साथ ही उसे अब सौ प्रतिशत यकीन आया कि उसका यंत्र काम करता है और समानांतर ब्रह्मांड की कल्पना वास्तविक है। अब उस खड़े व्यक्ति को पुनः बिठाने और उसे शांत करने के लिए उसके दोनों साथी भी उठ गए। जब महर्षि ने उसके दोनों साथियों का चेहरा देखा तो वह इसबार और भी ज्यादा भौचक्का हो गया। क्योकि ये दोनों इसके वही पुराने साथी थे जिनका उसकी पृथ्वी पर आईएएस प्रतियोगिता में चयन हो चुका था । उनकी इस हालत को देखकर महर्षि को अब हंसी आने लगी। “वास्तव में कोई भी दोस्त अपने दोस्त की सफलता से इसलिए दुखी नही होता कि वह क्यो सफल हो गया.? बल्कि इसलिए दुखी होता है कि वह स्वयं क्यो नही सफल हुआ..?किसी दोस्त की सफलता के प्रति द्वेष और अपने शत्रु की सफलता के प्रति द्वेष में यही बड़ा अंतर होता है। क्योंकि शत्रु के सफलता के प्रति व्यक्ति हमेशा यही सोचता है कि वह क्यो सफल हो गया..?
इसलिए अपने दोस्तों को इस हाल में देखकर उसे केबल हँसी आयी कि देखो उस पृथ्वी के आईएएस अधिकारी इस पृथ्वी पर मेरे साथ एक अति सामान्य व्यक्ति बने हुए है..” ऐसी ही सन्तुष्टि और खुशी अब महर्षि को हुई थी।
उन दोनों व्यक्तिओं ने कुछ कहते हुए पुनः महर्षि के प्रतिरूप को बिठा लिया और कुछ समझाने लगे। उन तीनों व्यक्तियों की सभी बातों को महर्षि ध्यान से सुन रहा था और अब उन बातों को समझने में महर्षि की दिलचस्पी भी बढ़ रही थी क्योकि वो बातें अब उसकी ही बातें थी भले ही उसके प्रतिरूप की ही क्यो न हो..। इसप्रकार उन तीनो व्यक्तियों को बातें करते करते करीब एक घण्टा गुजर गया । और अब वो शांत हो गए थे और महर्षि का प्रतिरूप रो भी नही रहा था। उनको देखकर अब ऐसा लग रहा था जैसे उन तीनों ने उस दुख को झेलने के लिए सब्र कर लिया हो और उसी को अपनी नियति मान ली हो। तभी महर्षि देखता है कि कुछ भेड़ बकरियां वहाँ पर आती है उन तीनों के आसपास घूमने लगती है। महर्षि सोचता है कि ये भेड़ बकरियां इन्ही तीनो लोगों की है। किन्तु जब वह देखता है कि इन भेड़ बकरियों को एक लड़की, लकड़ी से हाँकते हुए चली आ रही है तो उसे देखकर वस फिर से एक पल के लिए अचेत हो जाता है और जब पुनः चेतन में आता है तो देखता है कि यह तो उसकी पृथ्वी बाली निहारिका है। जो यहाँ पर इनके साथ मिलकर भेड़-बकरियां चरा रही है। जैसे ही वह लड़की उन तीनों के पास पहुंच कर उनसे कुछ पूछती है, वैसे ही माहौल पुनः गर्म हो जाता है और इस बार तो माहौल इतना गर्म हो जाता है कि महर्षि का प्रतिरूप खड़ा होकर, निहारिका के प्रतिरूप के गाल पर जोर से एक तमाचा जड़ देता है और फिर दूसरा मारने ही बाला होता है वैसे ही उसके दोनों मित्र उसके हाथ पकड़ लेते है। निहारिका का प्रतिरूप थप्पड़ खाकर कुछ प्रतिक्रिया नही करती बल्कि खड़ी खड़ी बिना आवाज़ किए ही उसकी आँखों से आँसूं गिरने लगते है। यह सब देखकर महर्षि पहले तो खुश हुआ क्योकि उसकी पृथ्वी बाली निहारिका ने भी उसमे दो थप्पड़ मारे थे जिसके बदला उसके इस प्रतिरूप ने ले लिया किन्तु उसके आँसुओं को देखकर वह बाद में दुखी हो गया। वो चारो लोग उसी माहौल में कुछ एक दो घण्टे और रुके और फिर चारो भेड़ बकरियों को लेकर उसी रास्ते पे आ गए जिस रास्ते को छोड़कर महर्षि जंगल मे घुस गया था।
अब महर्षि चोरी-छिपे उनके पीछे पीछे चलने लगा । वो चारों आपस मे बातें करते जा रहे थे, जिन बातों से दुख-दर्द का एहसास हो रहा था। इसीप्रकार बातें करते करते वो एक गाँव मे पहुंच गए और गांव के अंदर की गलियों में घुस गए। महर्षि उनसे बचने के लिए उनसे बहुत पीछे पीछे चल रहा था। इसलिए वह अभी गांव में नही घुसा और वह उसी गांव के बाहर छुप गया जिससे वह , उस गाँव वाले लोगों की नजरों से बचा रहे..
महर्षि ने उस गाँव के आसपास को और गांव में बन रहे घर और वहाँ के लोगों के व्यवसाय को अच्छी तरह से देखने लगा। यह सब देखकर उसे लगा कि इस पृथ्वी पर इंसानी सभ्यता उसी पृथ्वी के मुकाबले काफी पिछड़ी हुई है। और सोचने लगा इससे अच्छा तो मैं अपनी ही पृथ्वी पर हूँ ,कम से कम वहाँ पर जीने के लिए आधुनिक सुख सुविधा तो है, यहाँ पर तो कुछ भी नही है सिवाय गरीबी और दरिद्रता के।
अतः वह इसप्रकार गाँव की जाँच पड़ताल कर ही रह था कि तभी उसके पीछे से एक औरत आयी और उसने उसके कंधे पर हाथ रखा और उससे अपनी भाषा मे कुछ पूछा..! जैसे ही महर्षि ने उस औरत की तरफ मुँह किया वैसे ही वह औरत एकदम अवाक रह गयी और उसका मुँह फटा रह गया..! यह देखकर महर्षि भी परेशान हो गया और डर गया। वह भी उस औरत को देखकर चकित भी हो गया क्योकि उस औरत का चेहरा उसकी माँ जैसा था। उस औरत ने भी छोटी सी लगोंटी पहनी थी और छाती को एक कपड़े से ढका हुआ था जैसे यहाँ की निहारिका ने ढका हुआ था।
यह देखकर महर्षि उस औरत से बचने के लिए वहाँ से भागने लगा..! वह औरत भी अब उसके पीछे जोर जोर से चिल्लाती हुई भागने लगी। उस औरत की चीख पुकार सुन उस गांव के लोग भी बाहर निकल आये, अँधेरा होने लगा था इसलिए कुछ लोग हाथों में जलती हुई मशाल लेकर भागने लगे। सबसे आगे महर्षि फिर उसके पीछे चिल्लाती हुई वह औरत और उसके पीछे गाँव बाले लोग। अब महर्षि बहुत डर गया था कि अगर इन्होंने मुझे पकड़ लिया तो मुझे ये लोग सदा के लिए यही पर रख लेंगे। इसलिए महर्षि तेज़ तेज़ भागने लगा। भागते भागते महर्षि एक पास बनी गुफ़ा में छुप गया जिसमें एक बाबा ध्यान लगाकर बैठा हुआ था जिसके शरीर पर कोई कपड़े नही थे और बाल बहुत बहुत बड़े हो रहे थे। उसी प्रकार उसकी दाढ़ी भी बड़ी हुई थी। उस गुफा में एक अजीब सा माहौल हो रहा था। जब महर्षि उस ने उस बाबा को पास जाकर देखा तो उस बाबा का चेहरा उसके पिता से मिलता था। यह सब देख अब महर्षि परेशान होता जा रहा था। तभी वह औरत उस गुफा के बाहर रुक गयी और जोर जोर से चिल्लाने लगी, वह इतनी जोर से चिल्लाने लगी कि वह बाबा खड़ा हुआ और गुफा के दरवाजे पर चला गया। कुछ ही देर बाद उस गुफा के दरवाजे के पास गाँव के बहुत से लोग इकट्ठा हो गए। गांव के लोगों को इकट्ठा होते देख वह औरत जोर जोर से उनसे कुछ कहने लगी किन्तु कहते कहते एकाएक चुप हो गयी.. गाँव बाले उसके इस व्यवहार को देखकर अचंभित हो रहे थे और इसीप्रकार गुफा के दरवाजे पर खड़ा बाबा भी। वह औरत गांव बालों की भीड़ में घुसी और महर्षि के प्रतिरूप को बाल पकड़ कर बाबा के सामने खींच लायी..!
महर्षि गुफा के दूसरे दरवाजे से बाहर निकल कर गुफा के ऊपरी हिस्से पर चढ़कर चुपके से वहीं से ये सब नजारा देख रहा था। महर्षि का प्रतिरूप उस औरत से बार बार कुछ कह रहा था और ऐसा लग रहा था जैसे वह उससे हाथ जोड़कर कोई विनती कर रहा हो किन्तु वह औरत और भी जोर जोर से उससे और इकट्ठे हुए अभी गांव वालों एवम गुफा के दरवाजे पर गम्भीर मुद्रा में खड़े बाबा से कुछ बोल रही थी। महर्षि का प्रतिरूप तभी गुस्से में जोर से उस औरत पर चिल्लाया किन्तु उस औरत ने महर्षि के गाल पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया। यह देख गाँव बालो के चेहरे पर आस्चर्य का एक भाव आ गया और तभी उसी भीड़ में से रोती हुई निहारिका निकली और उस औरत के पैरों में गिर गई। सायद वह उस महर्षि को बचाने के लिए यह सब कर रही थी। तभी उस बाबा ने महर्षि से खड़े होने का इसारा किया और फिर उसके मुँह पर लाल रंग की धूल लपेट टी। निहारिका उस बाबा के भी पैर पड़ रही थी। वहीं उस औरत के मुँह पर क्रूरता और स्वयं को सही ठहराने का तेज छाया हुआ था। लाल रंग लपेटने के बाद उस बाबा ने महर्षि को भीड़ की तरफ धकेल दिया और फिर भीड़ ने महर्षि को जम कर पीटा । लात घूंसे और लकड़ी के लट्ठों से उसे खूब मारा। मार पीटने के बाद गांव बाले और वो औरत पुनः गाँव की तरफ चले गए वहीं बाबा गुफ़ा अंदर चला गया। वहाँ पर केबल महर्षि और निहारिका का प्रतिरूप रह गया। महर्षि मार की चोटों से कराह रहा था वही निहारिका उससे लिपट कर रो रही थी। महर्षि दोनों की इस हालत को देखकर बहुत दुखी हुआ और मन ही मन बोलने लगा कि महर्षि के तो भाग्य में ही सायद मार खाना और दूसरों की जहालत झेलना ही लिखा है फिर चाहे वह नई जमीन हो या पुरानी जमीन।
तभी महर्षि गुफा के ऊपर से उतरकर उन दोनों के पास आकर खड़ा हो गया। जमीन पर गिरे हुए और मार से बेहाल महर्षि और निहारिका के प्रतिरूप ने देखा कि कोई व्यक्ति पैरों में कुछ पहने हुए उनके पास आकर खड़ा हो गया है तो उनका रोना बंद हो गया और फिर खड़े हुए व्यक्ति के मुँह की तरफ देखने लगे किन्तु कुछ छड़ टकटकी लगाकर उसके चेहरे की तरफ देखने के बाद वो दोनों एक साथ वैहोश हो गए..!
महर्षि उनकी इस वैहोशी का कारण समझ गया और फिर अपने घुटनों पर बैठकर उसने दोनों के ऊपर हाथ फैरते हुए कहा कि “ मुझे तो लग रहा था कि ब्रह्मांड की अन्य पृथ्वी पर रहने वाला महर्षि जरूर मुझसे कहीं ज्यादा खुश और समृद्ध होगा किन्तु यहाँ का महर्षि तो मुझसे भी कहीं ज्यादा दुःखी और परेशान है.। मैं तो पृथ्वी से यही सोचकर चला था कि मैं तुम्हारी जगह लूंगा और तुम मेरी जगह किन्तु माफ करना मित्र दोनों पृथ्वियों के काल अलग अलग है किंतु दोनों महर्षियों की समस्याएं लगभग एक जैसी है। फिर भी तुम्हारे साथ तुमको कोई प्यार करने वाला तुम्हारे दुःख मे तुम्हारे साथ रोने वाला तो है मेरे साथ तो मैं ही अकेला हूँ। इसलिए तुम अपने दुःख यहाँ पर बांट तो सकते हो अपनी पीणा को किसी को बता तो सकते हो किन्तु मेरे साथ ऐसा बिल्कुल भी नही है। इसलिए तुम यहीं पर रहो मैं कहीं और किसी अन्य पृथ्वी पर किसी अन्य ब्रह्मांड में खुशहाल महर्षि तलाशता हूँ। इसे देखकर लगता है कि कितने भी ब्रह्मांड हों कितनी भी पृथ्वी हों किन्तु नियति लिखने वाला सायद एक ही है..”
यह कहकर महर्षि खड़ा हुआ और फिर उसने पुनः यंत्र में एक अन्य डिग्री सेट की और उसे पहले ऑन किया और फिर उसकी बटन को बंद कर वहाँ से गायब हो गया..

प्रशांत सोलंकी
8527812643
मेरी इस कहानी का किसी भी घटना और स्थान से कोई सम्बंध नही है।

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