धूमिल होती पत्रकारिता
#पत्रकारिता_पर_क्या_कहेंगे?
पत्रकारिता पहले मिशन हुआ करती थी। धीरे-धीरे इसका व्यवसायीकरण हुआ। समय के साथ व्यवसायीकरण होना ठीक है, क्योंकि पत्रकारों-कलमकारों की भी जरूरते हैं।
पत्रकारिता का व्यवसायीकरण होने के बाद इससे जुड़े लोगों की जरूरतें पूरी होने लगी, लेकिन इसके दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे। धीरे-धीरे आवश्यकताएं इच्छाओं में बदलने लगी, फिर इच्छाएं विलासितापूर्ण जीवन मैं बदल गई और विलासिताएं नीच काम करने को मजबूर करने लगी। इसके बाद शुरू हुआ पत्रकारिता का पतन और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का स्तर दिनों दिन गिरता गया।
प्रतिष्ठित लेखक सआदत हसन मंटो ने कहा था कि कोठे की तवायफ और बिका हुआ पत्रकार दोनों एक ही श्रेणी में आते हैं, लेकिन इनमें तवायफ की इज्जत ज्यादा होती है। इस समय सिर्फ कुछ गिने-चुने पत्रकार ही इस पेशे की शुचिता को बनाए हुए हैँ, वरना सआदत हसन मंटो के कथन की प्रासंगिकता आज चरम की ओर अग्रसर है…