धूप
धूप
बहुत दिनों के बाद आज फिर
सजधज कर सुन्दर बाला,
बैठ गई है हरी दूब पर
खिला-खिला-सा रूप निराला।
इसके यौवन की सुरभि
फैली है दशों दिशाओं में,
हठखेलियां करती हैं दूब से
मस्ती करती हवाओं से
बैठती है, कभी उठ चलती है
डाल बदन पर अपने शाला।
बैठ गई है हरी दूब पर
खिला-खिला-सा रूप निराला।
दूध से इसके वसन हैं।
रूप मक्खन जैसा पाया
स्पर्श थोड़ा सा गर्म है।
शरीर मखमल सा बनाया
नयन चंचल बन डोल रहे हैं
छलक रही है इन से हाला।
बैठ गई है हरी दूब पर
खिला-खिला-सा रूप निराला।
कभी लेटती, कभी बैठती
कभी एकदम उठ चल देती
हवा सखी को साथ में लेकर
दशों दिशाओं को तय करती
सांसों में खुशबु है भरती
लेकर हवा का साथ निराला।
बैठ गई है हरी दूब पर
खिला-खिला-सा रूप निराला।
-ः0ः-
नवल पाल प्रभाकर