धूतानां धूतम अस्मि
#sahityutsavdrarunkumarshastri
आज प्रातः काल में उठते समय एक विचार जो कि गीता के श्लोक 10/36 व भगवान श्री कृष्ण के वचन – धूतं छलयतामास्मि- अर्थात मैं छ्ल करने वालों में जुआ हूँ , के अन्तर्गत वर्णित है , अनायास याद आ गई ।
ये बात भगवान ने अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन करते समय कही है । इस बात को हमें संदर्भ के अनुसार समझना होगा । यथार्थ में जुआ लालच और लोभ का मूर्तरूप है । किन्तु उसमें सर्वव्यापक भगवद सत्ता का जो अल्पांश उपस्थित है उसे देखना होगा । उस की उपस्थिति जीने की उस आशा के रूप में दृष्टवय जो दांव हारते हुये खिलाड़ी के मन में अत्यधिक प्रबल होती जाती है यही भाव श्री भगवान ने उपरोक्त वचनों के माध्यम से सकारत्मकता को इंगित करते हुए अपनी सत्ता की उपस्थिति के लिये कहा है । प्रभू के इस वचन को मन से आत्मा से व कर्म के होने में छह कारक तत्वों अर्थात तीन प्रेरक तत्व ( ज्ञान , ज्ञेय, परिज्ञाता) और 3 कर्म संग्रह अर्थात कर्म को सम्पादन करने वाले तत्व ( करण, कर्म और कर्ता ) जो तृगुनात्मक विवेचना द्वारा ही उस कर्म में आपका सहभाग करते है से समझना होगा । श्री गीता जी में भगवान के सम्पूर्ण वचन व उसमें प्रस्तुत अर्थ भाव आदि सभी श्लोक शुरु से लेकर अन्त तक एक के बाद एक सतत रूप से श्री प्रभू के वचनो से जुड़े हैं इसलिए हम गीता को बीच से पढ़ कर समझ ही नही सकते । उसका सम्पूर्ण पठन पाठन कर के आत्मसात करना होगा तभी श्री गीता जी में वर्णित प्रभु भाव को समझ सकते। ओमं श्री भगवते वासुदेवाय नम: ।