“धुँध “
प्रदूषण के चलते आज पृथ्वी के अस्तित्व पर ख़तरा मँडरा रहा है।हवा का स्तर इतना ख़तरनाक हो गया है कि साँस लेना मतलब ज़हर लेना है और हम हल ढूँढने की बजाय अपनी ज़िम्मेवारी दूसरों पर डाल रहे हैं;यहाँ तक सूरज को भी न निकलने का बहाना ढूँढना पड़ रहा है।बस आप पढिये:-
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“धुँध”
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सूरज,सालों साल हो गये
तुम्हें चलते चलते,
थक गये होगे !
ठंड बड़ गई है,
हर साल की तरह
धुँध बड़ गई है
इसे ओढ़ और सो जा।
पराली जली,
प्रयोग किया हुआ,
कम्प्यूटर जला,
ट्राली जली
सब हुआ।
धुँआ धुँआ ।
कोई नहीं सुनता,
किसी की यहाँ ,
चाँद भी,
अब हो गया दाग़ी ,
बस थेड़ी ही दूर,
हो तुम भी !
न पहुँच जाये तुम तक धुँध;
सोये रहो बस आँखें मूँद ।
सरकार भी कर रही उपाय,
तब तक सुड़को,
अदरक वाली चाय;
स्कूलों की हुई,
कुछ दिन छुट्टी
तुम्हें तो उतरना ,
चढ़ना है;
हर रोज़ की तरह,
लो धुँध उतर आई,
ओढ़ इसे और सो जा।
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राजेश”ललित”शर्मा