धुँधलाती इक साँझ को, उड़ा परिन्दा ,हाय ! धुँधलाती इक साँझ को, उड़ा परिन्दा ,हाय ! श्रृंगार धरा रह गया ,निश्चेष्ट पड़ी काय ।। @पाखी