धुँआ – राख
डरी आंख नहीं थी, डरी शक्ल थी
धुंआ बहुत था पर आग नहीं थी,
सुबह न जाने किसकी, राख बहुत थी,
हम डरने के अभ्यस्त थे,
माहौल था, पर डरने वाली बात नहीं थी
वो चौतरे पर चील्म फूँक रहे हैं
लगते तो हम जैसे हैं ,
पर मेरे गांव के लोग नहीं है,
सब कह रहे हैं , यही धुआँ था, इसी की राख थी ,
यहीं इक छप्पर था, चार थूनी थी,
आधे कपड़े में रहते दो बच्चे थे, इक औरत थी
खेत में जो मरा था, उसमें इसका भी मर्द था,
क्या बकते हो, दादा
बड़े लोगों की बड़ी चील्म थी, और कोई बात नहीं है
यकीन नहीं है, पर बहस की औकात नहीं है