धर्म खतरे में है.. का अर्थ
प्रत्येक धर्म के दो भाग होते हैं-
1-अध्यात्म
2-दैनिक व्यवस्था
फिर अध्यात्म के भी दो भाग होते हैं-
1-कर्मकांडीय अध्यात्म
2-दार्शनिक अध्यात्म
1- दैनिक व्यवस्था या धर्म के दैनिक नियम-
धर्म की दैनिक व्यवस्था ही धर्म की धरती होती है जो हमको धारण करती है और अध्यात्म व्यवस्था धर्म का आसमान होता है जो हमारे ब्रह्म या जगत के विचारों को, सोच को उड़ान देते हैं। धरती हमारा भरण पोषण और रक्षा करती है उसी भाँति धर्म की दैनिक व्यवस्था हमको जानवरों से अलग कर सामाजिक, बुद्धिशाली मानव बनाती है, जो अपने स्तर पर सभी कार्य नियम अनुसार करता हैं जिससे समाज, देश, संसार एवं पृथ्वी सुरक्षित एवं संरक्षित रहती है, जबकि जानवर इंद्रिय जरूरतों से परिचालित होते हैं। प्रारंभ में मनुष्य भी जानवर ही था किंतु धीरे-धीरे उसे अपनी बुद्धि का विकाश किया और अनुभवों को सहेजना प्रारंभ किया। उन्हीं अनुभवों के आधार पर मनुष्य ने दैनिक जीवन के कुछ नियम बनाए जो मनुष्य को जानवरों से तो अलग करते ही थे साथ ही मनुष्य को सामाजिक जीव बनाते थे, जो केवल अपनी ही जरूरतों को ही नहीं बल्कि अपने समाज की जरूरतों को भी अपनी शक्ति और योग्यता से पूरा करता है। यही कारण है कि मनुष्य को छोड़कर शेष अन्य जीव लुप्त होते जा रहे हैं क्योंकि उन्होंने जीने के लिए नियमों का पालन नहीं किया जबकि मनुष्य लुप्त होने के बजाय विकसित होता जा रहा है क्योंकि मनुष्यों अपने जीवन में नियमों का पालन किया, उन्हीं नियमों को धर्म कहते हैं। प्रत्येक धर्म के लगभग एक सामान दैनिक नियम या दैनिक व्यवस्था हैं क्योंकि सभी मनुष्य हैं, सभी समाज बनाकर रहते हैं, इसलिए सभी मनुष्यों की एवं उनके समाज की लगभग एक जैसी ही जरूरतें हैं।
वास्तव में जीवन की मुख्य जरूरतें इंसान और जानवर सभी की एक समान होती है अर्थात खाना, पीना, सोना, रहना, संतान उतपन्न करना। इन्हीं सब जरूरतों को जानवर अपनी शक्ति के आधार पर, मत्स्य न्याय के द्वारा असभ्य एवं बेतरतीब तरीके से पूर्ण करते हैं जबकि इंसान नियम अनुसार। जैसे जानवर बगैर पका भोजन करते हैं, जानवर जब भूखे होते हैं तभी भोजन की व्यवस्था करते हैं पहले से नहीं, जानवर जहाँ चाहते हैं, जैसे चाहते हैं सो जाते हैं अपना घर नहीं बनाते और बनाते भी हैं तो प्रजनन काल तक ही, जानवर मल मूत्र जब चाहे, जहाँ चाहे त्याग देते हैं और फिर शरीर को साफ भी नहीं करते, जानवर समय से नहाते नहीं जिससे उनके ऊपर कीड़े बने रहते हैं, जानवर संभोग क्रिया में किसी नियम का पालन नहीं करते एक नर जानवर प्रत्येक मादा के साथ संभोग करता है फिर चाहे वह उसकी बेटी हो, बहिन हो या माता हो किंतु इंसान ऐसा नहीं करता क्योंकि इंसान ने स्वयं को जानवरों के आधार से ऊँचा रखने के लिए दैनिक जीवन के नियम बनाए, इन्हीं नियमों को धर्म कहा गया है। इसलिए कहते हैं “धर्मो रक्षति रक्षितः” अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है अर्थात दैनिक जीवन में नियमों का पालन करता है, धर्म उसकी रक्षा करता हैं अर्थात ऐसे व्यक्ति के जीवन में कष्ट कम से कम आते हैं। जैसे भगवान राम धर्म अनुसार आचरण करते थे जबकि रावण अधर्म अनुसार इसलिए रावण राक्षसों की श्रेणी में जबकि राम देवताओं की श्रेणी में आते हैं। धर्म की दैनिक व्यवस्था होती है जैसे मनुष्य को शुबह उठते ही मल मूत्र का त्याग उचित स्थान पर कर कुल्ला कर स्नान करना चाहिए, स्वच्छ कपड़े पहने चाहिए, भोजन का प्रबंध करना चाहिए ना केवल अपने लिए बल्कि अपने रिश्तेदार या जरूरत मंदों के लिए भी, घर बनाकर रहना चाहिए, शरीर को वस्त्रों से ढककर रखना चाहिए, वस्त्र स्वच्छ एवं सिले हुए होने चाहिए, धन का अर्जन करना चाहिए, उस धन से अपनी जरूरतें पूरी करनी चाहिए, मनुष्य को एक दूसरे का सम्मान एवं प्रेम करना चाहिए, किसी के अधिकार पर अपना अधिकार नहीं करना चाहिए, सभी की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए और किसी के ऊपर अपनई शक्ति का व्यर्थ प्रयोग नहीं करना चाहिए। इन्हीं के साथ ही एक या धर्म अनुरूप महिलाओं से शादी कर संतान उतपन्न करना चाहिए, और संतान की अच्छे से परवरिश करनी चाहिए। विवाह पूर्व गलत व्यवहार या किसी स्त्री या पुरुष से संभोग नहीं करना चाहिए और विवाह उपरांत भी अपने साथी को छोड़कर किसी अन्य के साथ संभोग नहीं करना चाहिए। अपनीबहिन, बेटी, माता या फिर अन्य स्त्रियों के बारे में कभी व्यभिचार के बारे में नहीं सोचना चाहिए। इत्यादि सभी धर्म की दैनिक व्यवस्था है। अगर व्यक्ति इन धार्मिक नियमों का पालन करेगा तो यह सच है उसे अपने जीवन में कम से कम समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, अर्थात व्यक्ति ने धर्म के नियमों का पालन किया तो धर्म के नियमों ने उसे एक अच्छा, सच्चरित्र व्यक्ति बनाया और उसके जीवन को समस्याओं से दूर रख कर उसकी रक्षा की। अतः धर्म को हम धारण करें तो धर्म हमको असभ्य जानवरों की श्रेणी में नहीं गिरने देगा हमेशा सभ्य मनुष्य की श्रेणी में बनाए रखेगा अर्थात हमारा आधार सुद्रण रखेगा। धर्म ही तय करता है कि एक पुरुष को कितनी औरतों पर कानूनन अधिकार होना चाहिए, जिससे प्रत्येक पुरुष को लगभग एक समान स्त्री मिल सके और समाज में संतान उत्तपत्ति का क्रम बना रहे, और शक्तिशाली ज्यादा से ज्यादा स्त्रियों पर जानवरों की भाँति कब्जा ना जमा ले।
अब अध्यात्म भी दो प्रकार का होता है-
1-कर्मकांडीय अध्यात्म
2-दार्शनिक अध्यात्म
– कर्मकांडीय अध्यात्म व्यक्ति को धर्म का पालन करने के लिए सैकोलॉजिकली मजबूर भी करता है और प्रोत्साहित भी करता है। इस अध्यात्म के द्वारा व्यक्ति की जरूरतों को भगवान की कृपा से जोड़ दिया जाता है, और भगवान की कृपा तभी होगी जब व्यक्ति धर्म का पालन करेगा अर्थात दैनिक नियमों का। इसलिए धर्म की दैनिक व्यवस्था को मजबूती से पालन कराने के लिए कर्मकांडीय अध्यात्म बनाए जाते हैं। इस कर्मकांडीय व्यवस्था को प्रत्यक्ष रूप से भगवान या देवताओं से जोड़ दिया जाता, देवता इंसान से बहुत शक्तिशाली पुरुषार्थ में उच्च होते हैं। जब व्यक्ति धर्माचरण का पालन करता है तो देवता खुश होते हैं और ऐसे मनुष्यों के दुखों को हरते हैं एवं उनकी दैनिक जरूरतों में उनकी सहायता करते हैं। कर्मकांड जैसे किसी स्त्री को पत्नी बनाने से पहले सात फेरे लेने होंगे, जिससे वह स्त्री आपकी जन्म जन्म की साथी होगी, जो जन्म जन्मांतर का साथी है वह अपने पति या पत्नी के साथ धोखा नहीं दे सकता, गरीबो की सहायता, अच्छा व्यवहार, दूसरों का सम्मान, चोरी ना करना, इत्यादि से देवता खुश होते हैं। प्रतिदिन स्नान, साफ-सफाई से भगवान की कृपा बनी रहती है, अगर भगवान की कृपा बनी रहेगी तो जीवन कष्टों से दूर रहेगा, इसलिए व्रत रखना, दान देना, गरीब जरूरत मंदों की सहायता करना सब कुछ।
-द्वितीय दार्शनिक अध्यात्म का मतलब धर्म की दैनिक नियमावली से नहीं होता बल्कि उनका सम्बंध इस जगत के गूढ़ रहस्यों से होता है, जिसकी खोज केवल ज्ञान से ही की जाती हैं उसके लिए धर्म के दैनिक आचरण की कोई विशेष जरूरत नहीं होती। जैसे अहोरी बाबा, पीर फकीर बाबा, साधु संत इत्यादि, ये धर्म के नियम को अपने स्तर पर तोड़ते हैं किंतु समाज को धर्म अनुसार रहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं धर्म की कर्मकांडीय विचारधारा से।
वर्तमान में धर्म का विनाश किसी जाति या मजहब से नहीं बल्कि धर्म के दैनिक नियमों का सुचारू एवं पारंपरिक रूप से पालन ना करने के कारण हैं, और वो भी प्रत्येक धर्म में। वर्तमान समाज जितना आधुनिक और खुल रहा है उसमें व्यक्ति का आनंद केंद्र बिंदु बन गया है, और जब जीवन में आनंद केंद्र बिंदु बन जाता है तो व्यक्ति प्रत्येक व्यभिचार करने के लिए आजाद ही जाता है, फिर उसे कोई भी नियम कायदे नहीं रोक पाते सिवाय कानून के। व्यक्ति एक पत्नी के साथ साथ पर स्त्री गमन करता है, शराब सिगरेट पीता है, किसी का सम्मान नहीं करता बल्कि अहंकारी होता है, धैर्य नहीं रखता बल्कि अवसरवादी हो जाता है। यह सब कानून के दायरे तक करता है किंतु धार्मिक दायरे से यह सब बाहर हो जाता है। बच्चे पोर्न वीडियो देखते हैं जिससे समाज में बहिन बेटी भाई चाचा ताऊ आदि रिश्तों की सीमाएं समाप्त हो रही है। महिलाएं छोटे छोटे कपड़े पहन कर अंग प्रदर्शन कर रही हैं और पुरुष शराब सिगरेट और बत्तमीजी से अंहकारी हो रहा है। बुजुर्गों की सेवा नहीं… यही सब से धर्म खतरे में ना कि मुसलमानों से या हिंदुओं से। इसलिए वर्तमान समय में प्रत्येक धर्म को स्वयं के फॉलोवर से ही खतरा है ना कि किसी दूसरे धर्म के लोगों से।
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली