धर्म के नाम पर होता अश्लीलता का नंगा नाच
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हमारे सनातन धर्म में मूर्ति पूजन का बड़ा ही प्राचीन परम्परा है , एक वह मूर्ति जिसकी स्थापना करने के बाद निरंतर उसकी पूजा की जाती है इस प्रकार की मूर्तियां अक्सर मंदिरों में स्थापित होती है और इन्हें मूर्तिकार सलीके से पत्थरों की कटाई करके बनाते हैं , दुसरी वह जिन्हें हम किसी विशेष मौके पर जैसे आश्विन माह की दूर्गा पूजा, सरस्वती पूजा, विश्वकर्मा पूजा, गणेशोत्सव आदि के मौके पर लाते भव्यता से उनकी पूजन करते तथा पूजनोपरांत उनका बहते जल में विसर्जन कर देते हैं। यह प्रक्रिया सदियों से बदस्तूर चली आ रही है जो हमारे सांस्कृतिक आस्था, सांस्कृतिक मान्यताओं का प्रतीक है।
आज दुर्गा पूजा हो, सरस्वती पूजा , विश्वकर्मा पूजा, गणेश पूजा या इस तर की कोई भी पूजनोत्सव हो जिसमें मूर्ति स्थापना कर के पूजन समारोह बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है जिसके लिए जगह जगह नवयुवकों की कमीटीयां बनी हुई है इस कमीटी में सहभागिता करनेवाले सदस्यों का काम चंदा वसुली कर मूर्ति लाने से लेकर पूजा व इस उत्सव में होने वाले तमाम गतिविधियों का संपूर्ण संचालन करना है।
आज यहाँ पर कमिटी द्वारा धर्म को धंधा बनाकर पहले चंदा जुटाकर मूर्ति स्थापित की जाती है और फिर प्रारंभ होता है फूहड़ गानों पर श्लीलता का नंगा नाच। मदिरा सेवन कर मूर्ति विशर्जन तक ये फूहड़पने का नंगा नाच बदस्तूर चलता रहता है। इन उत्सवों पर आजकल ऐसे ऐसे भोजपुरी अश्लिल गाने बजते हैं जिन्हें आप अपने घरों में कदापि सुनना पसंद नहीं करेंगे। शर्म को शर्मा देने वाले ये गाने हमारे वर्तमान नैतिक, सांस्कृतिक, संस्कारिक पतन की कहानी बयां कर रहे हैं। धर्म को बैसाखी बनाकर सांस्कृतिक मर्यादाओं का सिधे तौर पे गला घोंटा जा रहा है और विडम्बना यह है कि हम सभी मुक दर्शक बन इस अनैतिकता को देख व स्वीकार कर रहे हैं ।
क्या इस तरह का धार्मिक ब्यवहार उचित है? आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है जो हम धर्म को, हमारी धार्मिक मान्यताओं को धूल धूसरित होते देख रहे हैं किन्तु कुछ कह नहीं पाते, इन्हें रोकने का कोई सार्थक कदम नहीं उठाते।
आखिर हम अपनी धार्मिक प्रधानताओं को अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं को किस ओर लेकर जा रहे हैं?
क्या धर्म के नाम पर ऐसी फूहड़ता उचित है?
दोस्तों अपना मत अवश्य ही प्रकट करें।
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
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