धर्म का स्वरूप
भारत ! भारत सभ्यता और संस्कृति का आधार स्तम्भ है ।इसके कण-कण में विद्यमान है अपार उर्जा का स्रोत,जो चरित्र में नित पावनता उत्पन्न कर कर्तब्यों का बोध कराते हुए आदर्श प्रस्तुत करते है।माता और संतान से सम्बंधो की व्याप्त भावनाएं यहां की मिट्टी को पवित्र एंव पूजनीय बना देती हैं । यहां का आम जन मानस सहिष्णु ,आदर्शवादी और कर्मयोगी है,अर्थात् कर्म को ही अपना धर्म मानता है।
धर्म का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। इसको लेकर लोगों के सोचने का दृष्टिकोण अलग-अलग हो सकता है ; वैसे यह विषय आस्था,श्रद्धा और भावनाओं का है परन्तु वर्तमान में इसका बाजारीकरण हो गया है । लोगों की आस्था में श्रद्धा कम किन्तु दिखावे की आस्था अवश्य परिलक्षित होती हुई प्रतीत होती है।
ऐसा नही है कि लोग कर्म नही करते, करते है किन्तु उनके कर्म में उनका अपना तर्क या स्वार्थ निहित होता है । आज धर्म ने अपनाआकार,रूप-रंग,भाषा,परम्परा आदि को जनमानस के अनुसार बना लिया है ; सभी के अपने-अपने नाम भी है,जो एक दूसरे को एक दूसरे से पृथक करते हैं और यही पृथकता मन में कलुषता उत्पन्न करती है। अतः क्यों न हम सत्कर्म को ही अपना धर्म रहने दें जो नाम ,भाषा, रूप-रंग , आकार एंव परम्पराओं से एक हो। धर्म का रूप कर्म हो,धर्म की परम्परा सद्भावना हो और धर्म की इच्छा में विश्व कल्याण की भावना निहित हो ।
सच्चे धर्म की पराकाष्ठा व्यक्ति को पीड़ा जरूर दे सकती है पर आत्मसंतुष्टि बहुतायत देती है और यही आत्मसंतुष्टि व्यक्ति के सुखमय जीवन का आधार है। व्यक्ति इसी सुख के लिए जीवन भर भटकता है,तरह-तरह के श्वांग रचता है,झूठ बोलता है और भ्रष्टाचार में लिप्त रहकर नश्वर सुख का सृजन करता है तथा इसी सुख को वाह्य आडम्बरो से अलंकृल कर उसे चिरस्थाई
बनाने के प्रयास में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देता है परन्तु निर्वाण के समय मस्तिष्क में आत्मज्ञान का प्रकाश फैलता है तथा उचित अनुचित कर्म का दृश्य किसी चलचित्र की भांति सम्मुख प्रस्तुत हो रहा होता है । ———-?
——————–?पंकज कुमार पाण्डेय?
03/10/2018