धर्म-अधर्म (Dharma-Adharma)
वेदोक्त ऋत, तैत्तिरीय आरण्यक में धर्म के बारह लक्षण, मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण, वैशेषिकशास्त्र में अभ्युदय एवं निःश्रेयस से धर्म की व्याख्या, महाभारत व रामायण महाकाव्यों में धर्म की बतलाई गई विशेषताओं पर यदि एक गहरी नजर डाली जाए तो मालूम होता है कि जिसे आज धर्म-अधर्म समझकर हमारे विश्वविद्यालयों में युवा पीढ़ी को छूटी की तरह पिलाया जा रहा है या जिसे गांव-गांव व शहर-शहर में बने डेरों व मठों में विराजमान शराबी व भंगेड़ी लोग धर्म कहकर प्रचारित कर रहे है। या जिसे जनसामान्य के अचेतन में धर्म कहकर घुसेड़ दिया गया है या कि जो चारों तरफ लूट व शोषण का कुकर्म चल रहा है-यह सब धर्म कतई नहीं है। यह सब धर्म के नाम पर पाखंड व ढोंग की लीला ही चल रही है । सत्य सनातन वेदों, उपनिषदों, दर्शनशास्त्रों या हमारे महाकाव्यों या फिर श्रीमद्भगवद्गीता से इसका दूर-दूर तक भी सम्बन्ध नहीं है। कुछ पुराणों से, कुछ पश्चिमी से तथा कुछ यहां के नामदानियों या मन्त्रदानियों से ऊटपटांग सीखकर उसी को सत्य सनातन धर्म कहकर प्रचारित किया जा रहा है। वास्तव में यह धर्म न होकर अधर्म ही है। धर्म से अर्थ तो आत्मसाक्षात्कार करके सत्य, तप, दान, समर्पण, विवेक, श्रद्धा, भक्ति आदि का उदय होना है। या फिर अहिंसा, सहन शक्ति, स्वाध्याय, ब्रह्म चर्य एवं अन्याय का प्रतिकार है । या फिर अहिंसा, सहनशक्ति, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य एवं अन्याय का प्रतिकार है। या फिर इस स्थूल जगत् में समृद्धि व वैभव को प्राप्त करके आत्मसाक्षात्कार का साधना के बल पर जुगाड़ करना है। या फिर जो समस्त प्रजा को धारण किए हुए है वह धर्म है। धर्म पाखंड, ढोंग, तीर्थस्थान, मूर्तिपूजा, जागरण, सत्संग, नामदान आदि के नाम पर शोषण नहीं अपितु यह सत्य, ब्रह्मचर्य, संयम, साधना, विवेक, बाहरी-भीतरी समृद्धि एवं प्रजापालन आदि है । इससे उल्टा सब अधर्म है ।
जब कोई व्यक्ति ‘धर्म’ को ही रिलीजन या मत या वाद या सिद्धांत या सम्प्रदाय मानने की जिद्द करता रहे तो वह धर्म को तो समझेगा ही नहीं, इसके साथ-साथ वह यह भी नहीं समझेगा कि ‘स्वधर्म’ क्या होता है। उसको यह भी समझ में कैसे आऐगा कि ‘स्वध में निधन श्रेयः परमर्धों भयावहः’ का वास्तविक अर्थ क्या होता है। स्वधर्म व परधर्म को समझने से पहले धर्म को समझना आवश्यक है। जिसको धर्म शब्द का सही अर्थ मालूम हो गया फिर वह स्वधर्म व परधर्म को भी सरलता से समझ पाऐगा। धर्म के सन्दर्भ में वर्णधर्म, आश्रमधर्म, व्यक्तिधर्म, समाजधर्म, राष्ट्र धर्म, अन्तर्राष्ट्रीय धर्म आदि को समझकर ‘स्वधर्म’ एवं ‘परधर्म’ के सम्बन्ध में विचार करना है या फिर कोई ‘सव’ की खोज की कोई रहस्य साधना बतलाई जा रही है-यह भी जानना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यहां पर यदि एक व्यक्ति-विशेष के धर्म के सम्बन्ध में यदि विचार किया जाए तो उसे ‘स्वधर्म’ की संज्ञा दे सकते हैं। एक व्यक्ति के क्या कर्त्तव्य होते हैं-परिवार, समाज, समूह, संगठन, राष्ट्र या समस्त धरा के प्रति-इन्हें व्यक्ति धर्म या स्वधर्म’ कह सकते हैं। यदि इसका केवल यही अर्थ लेकर हम आगे बढ़े तो निःसंकोच कथन कर सकते हैं कि परिवार से लेकर समस्त धरा तक सम्पन्नता, खुशहाली, वैभव एवं सन्तुष्टि लानी है तो इनकी सबसे छोटी ईकाई ‘व्यक्ति’ पर सर्वाधिक ध्यान देना होगा। व्यक्ति-व्यक्ति यदि अपने कर्त्तव्यों का पालन करे तो इसके पश्चात् अन्य नियमों, अनुशासनों या वर्जनाओं की जरूरत बहुत कम पड़ेगी। लेकिन वैदिक आर्य सनातन सीख को भूलकर भारत सहित इस धरा के समस्त देश व्यक्ति की उच्छृंखलता, नियम विहीनता एवं उन्मुक्त भोग को महत्त्व देने की हिमायत करते दिख रहे हैं। लेकिन इन बुद्धि के कोल्हूओं को यह भी पता होना चाहिए कि व्यक्ति-व्यक्ति मिलने से ही परिवार, समाज, संगठन, सया, समीति, समाज या राष्ट्र बनते है। यदि प्राथमिक ईकाई ही यदि अधार्मिकयों कर्त्तव्यहीन हुई तो जोड़ तो अधार्मिक होगा ही । इस तरह ‘स्वधर्म’ के पालन से भटके हुए व्यक्ति-कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ या ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ या ‘सुंगच्छध्वं’ वाले परिवार, समाज या राष्ट्र का निर्माण कैसे करेंगे?
आचार्य शीलक राम
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)