धर्मांतरण
धर्म और जाति का जन्म से ही थोपी एक व्यवस्था है.
इसे व्यक्ति तोड़ सकता है.
धर्मांतरण एक मौलिक अधिकार.
इसे नवजीवन/द्विज समझे.
तब ही आदमी, जानकर/जागकर विवेक, समझ और बुद्धि से निर्णय होश हवाश में कदम ले सकता.
ये काम भी संपूर्ण जागृति और हर दृष्टिकोण पर आकलन के बाद.
निर्णय ले सकता है.
और दुनिया से सवाल जवाब देने में सक्षम रहने वाला व्यक्तित्व कर सकता है.
धर्म के अनुयायी खुद कुंठित चीढ़े आदमी होते है.
वे समाज को क्या देंगे.
वो तो लेवता है.
कहाँ के देवता.