धर्मराज
भगवान् सूर्य की पत्नी संज्ञा से आपका प्रादुर्भाव हुआ है। आप कल्पान्त तक संयमनीपुरी में रहकर जीवों को उनके कर्मानुसार शुभाशुभ फल का विधान करते रहते हैं। ये पुण्यात्मा लोगों को धर्मराज के रूप में बड़े सौम्य और पापात्मा जीवों को यमराज;के रूप;में भयंकर दीखते हैं। जैसे अशुद्ध सोने को शुद्ध करने के लिये अग्नि में तपाते हैं, वैसे ही आप कृपावश जीवों को दण्ड देकर, उन्हें शुद्धकर भगवद्भजन के योग्य बनाते हैं।
भगवान् के मंगलमय नाम की महिमा का वर्णन करते हुए श्रीधर्मराज जी अपने दूतों से कहते हैं कि— नामोच्चारणमाहात्म्यं हरेः पश्यत पुत्रकाः।
अजामिलोऽपि येनैव मृत्युपाशादमुच्यत॥ एतावतालमघनिर्हरणाय पुंसां संकीर्तनं भगवतो गुणकर्मनाम्नाम्।
विक्रुश्य पुत्रमघवान् यदजामिलोऽपि नारायणेति म्रियमाण इयाय मुक्तिम्॥ (श्रीमद्भा० ६।३। २३-२४)
अर्थात् प्रिय दूतो! भगवान् के नामोच्चारण की महिमा तो देखो, अजामिल-जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करनेमात्र से मृत्युपाश से छुटकारा पा गया। भगवान् के गुण, लीला और नामों का भली-भाँति कीर्तन मनुष्यों के पापों का सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है; क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिल ने मरने के समय चंचल चित्त से अपने पुत्र का नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया, इस नामाभास मात्र से ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्ति की प्राप्ति भी हो गयी।
पुनश्च—*ते देवसिद्धपरिगीतपवित्रगाथा ये साधवः समदृशो भगवत्प्रपन्नाः।*
तान् नोपसीदत हरेर्गदयाभिगुप्ता नैषां वयं न च वयः प्रभवाम दण्डे॥ (श्रीमद्भा० ६।३। २७)
अर्थात् जो समदर्शी साधु भगवान् को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उन पर निर्भर हैं, बड़े-बड़े देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रों का प्रेम से गान करते रहते हैं। मेरे दूतो! भगवान् की गदा उनकी सर्वदा रक्षा करती रहती है। उनके पास तुम लोग कभी भूलकर भी मत जाना। उन्हें दण्ड देने की सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात् काल में ही।
*जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम्। *
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान्॥ (श्रीमद्भा०६।३।२९)
अर्थात् जिनकी जीभ भगवान् के गुणों और नामों का उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में नहीं झुकता उन भगवत्सेवाविमुख पाापियों को ही मेरे पास लाया करो।
कठोपनिषद् उद्दालक मुनि के पुत्र नचिकेता और यमराज का प्रसंग आता है। जिसमें श्रीयमराज जी आत्मतत्व के सम्बन्ध में की गयी नचिकेता की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहते हैं कि—नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्। तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्॥ अर्थात् जो नित्यों का भी नित्य है, चेतनों का भी चेतन है और अकेला ही इन अनेक जीवों की कामनाओं का विधान करता है, उस अपने अन्दर रहने वाले पुरुषोत्तम को ज्ञानी निरन्तर देखते रहते हैं, उन्हीं को सदा अटल रहने वाली शान्ति प्राप्त होती है, दूसरों को नहीं। नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूः स्वाम्॥ अर्थात् यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त होता है। जिसको यह स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है; क्योंकि यह परमात्मा उसके लिये अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है।