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22 Sep 2024 · 4 min read

#धर्मराज ‘युधिष्ठिर’ का जीवन चरित्र

#नमन मंच
#विषय धर्मराज ‘युधिष्ठिर’ का जीवन चरित्र
#शीर्षक ‘मन’ और ‘शरीर’ का संबंध
#दिनांक २२/०९/२०२४
#विद्या लघु कथा

🙏राधे राधे भाई बहनों🙏
आज की इस लघु कथा का टॉपिक महाराज युधिष्ठिर की मनोदशा का चित्रण करना, मुझे क्षमा करना आज की इस लघु कथा को मनोरंजन की तरह पेश कर रहा हूं, काल्पनिक चित्रण ‘सवाल जिसका जवाब नहीं’, कौन बनेगा करोड़पति मैं इसी प्रकार सवाल पूछे जाते हैं,
यह रहा आज का ‘सवाल’
“दस करोड़” के लिए ‘धर्मराज युधिष्ठिर’ जुए के अंदर अपना सब कुछ हार चुके थे, अंतिम चरण में ‘उनके’ पास दांव पर लगाने के लिए कुछ भी नहीं बचा, तब उन्होंने अपनी पत्नी ‘पांचाली’ को भी दांव पर लगा दिया !
उस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए अपने आपको ‘युधिष्ठिर’ की जगह रखकर इस सवाल का जवाब देना है !
आपके लिए ऑप्शन है,
A. जुए के इस खेल से उठ कर चले जाते,

B. जो ‘युधिष्ठिर’ ने किया वही आप करते,

C. ‘दुर्योधन’ को युद्ध के लिए ललकारते,

D. या सवाल का आपके पास जवाब नहीं,

कौन बनेगा करोड़पति में अक्सर सवालों के जवाब इसी तरह पूछे जाते है !
आज की परिस्थिति के अनुसार सब का जवाब होगा शायद…
A. जुए से उठ कर चले जाते,…

और होना भी यही चाहिए जुए को किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता, मैं भी इसका पक्षधर नहीं हूं !
लेकिन यहां पर सवाल का जवाब देने के लिए अपने को ‘महाराज युधिष्ठिर’ की जगह पर रखकर उत्तर देना है !
साथियों उस परिस्थिति में उस माहौल में ‘महाराज युधिष्ठिर’ ने जो भी फैसला लिया है, मैं उनको कभी गलत नहीं ठहरा सकता, यहां पर एक बात गौर करने लायक थी, जब ‘उनको’ चौसर खेलने के लिए आमंत्रित किया गया, तब उन्होंने ‘विदुर’ जी से
यह सवाल पूछा था,
क्या यह बड़े ‘पिता महाराज धृतराष्ट्र’ का आदेश है,
अगर यह ‘उनका’ आदेश है तो ‘मैं’ चौसर खेलने जरूर आऊंगा !
और जब हस्तिनापुर के राज दरबार में पहुंचे तब भी ‘उन्होंने’ ‘महाराज धृतराष्ट्र’ से कहा अगर यह ‘बड़े पिता’ का आदेश है तो ‘मैं’ यह चौसर जरूर खेलूंगा !

इसका मतलब यह साफ है ‘वह’ जुआ खेलने के लिए नहीं खेल रहे थे, बल्कि अपने ‘बड़े पिता’ ‘महाराज धृतराष्ट्र’ की आज्ञा का पालन करने के लिए या ‘उनका’ ‘मन’ रखने के लिए इस जुए को खेलने के लिए तैयार हुए, तो यहां पर ‘महाराज युधिष्ठिर’ के लिए हार और जीत का कोई महत्व ही नहीं था !
क्या दांव पर लगा रहा हूं, और क्या नहीं, इसका भी कोई महत्व नहीं था ! उनके दिमाग में तो यही चल रहा था, ‘दुर्योधन’ जीतेगा तो भी घर में, और
‘मैं’ जीतूंगा तो भी घर में, मेरे ‘बड़े पिता’ ‘महाराज
धृतराष्ट्र’ ‘हमसे’ अलग थोड़े ही है, ‘दुर्योधन’ कुटिल दिमाग है इस बात से ‘युधिष्ठिर’ भलीभांति परिचित थे, पर वे अपने ‘बड़े पिता’ ‘महाराज धृतराष्ट्र’ की आज्ञा को टाल नहीं सकते थे !

“अब बात आती है उस मूल प्रश्न की ”

महाराज ‘युधिष्ठिर’ को ‘पांचाली’ को दांव पर लगाना चाहिए या नहीं, लगा भी दिया तो किस की जवाबदारी बनती है, इस काम को रोकने की !
अगर ‘धृतराष्ट्र’ चाहते तो इस जघन्य अपराध से
सभी बच सकते थे, क्योंकि जब ‘युधिष्ठिर’
महाराज ‘धृतराष्ट्र’ की आज्ञा से ही खेलने बैठे थे,
और पुत्र ‘दुर्योधन’ ने उनका सब कुछ जीत लिया था, तो यहां पर ‘धृतराष्ट्र’ को अपनी महत्वाकांक्षा को सीमित करना चाहिए, और उनको इस खेल को वही रोक देना चाहिए था, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि इस होने वाले जघन्य अपराध का भागीदार बनकर इस खेल का आनंद लेने लगे !

अब थोड़ा आध्यात्मिक दृष्टि से महाराज ‘धृतराष्ट्र’ और ‘युधिष्ठिर’ की मनोदशा का चित्रण करने की कोशिश करते हैं, इसको एक उदाहरण के द्वारा
समझने की कोशिश करते हैं !

किसी भी कार्य को करने से पहले ‘मन’ के द्वारा उस कार्य को करने की विधि पर मंथन किया जाता है, या सोचा जाता है, फिर उस सोचे हुए कार्य पर ‘शरीर’ के द्वारा अमल किया जाता है, यानी की ‘मन’ ने शरीर को उकसाया, इसका मतलब साफ है
‘शरीर’ और ‘मन’ का गठजोड़ है, या यूं कहें कि आपस में तालमेल है !
मन सिर्फ आपको दिशा दिखाता है, लेकिन उस दिशा पर चलने का काम आप ‘स्वयंम’ यानी कि ‘शरीर’ के द्वारा होता है, हम ‘मन’ के अधीन हुए जैसा हमे ‘मन’ कहेगा वैसा ‘हम’ करेंगे !
षड्यंत्र करे ‘मन’ और दंड हमारे ‘शरीर’ को भोगना पड़ेगा ! कार्य अच्छा हो या बुरा उस कार्य का प्रतिफल (परिणाम) हमेशा ‘शरीर’ को ही भोगना पड़ता है ! ‘मन’ सूक्ष्म रूप में विद्यमान है, और ‘शरीर’ स्थूल रूप में !

इसको थोड़ा और गहराई से समझने की कोशिश करते हैं,
यहां पर ‘युधिष्ठिर’ यानी कि (शरीर) ‘धृतराष्ट्र’ यानी (मन) को मान लिया जाएं, यहां पर ‘युधिष्ठिर’ ने ‘धृतराष्ट्र’ को सर्वोपरि मानकर जैसा ‘वह’ कहते गए
वैसे ही ‘वह’ करते गए, यही वजह है कि इससे होने वाले दुष्प्रभाव का परिणाम भी ‘युधिष्ठिर’ ने ही भोगा, लेकिन इस से होने वाले दुष्प्रभाव से ‘महाराज धृतराष्ट्र’ भी नहीं बच पाए, उनके मन की कुटिल भावनाओं के चलते सब कुछ तबाह हो गया ! ‘यानी’ हम कह सकते हैं ‘युधिष्ठिर’ ने जो कुछ भी किया, उस परिस्थितियों के अनुसार
शायद ठीक था, ‘होनी’ को शायद यही मंजूर था !

इस लघु कथा की ‘विवेचना’ में किसी की भावना आहत होती है तो उसके लिए मुझे क्षमा करना !
क्षमा प्रार्थी
राधेश्याम खटीक

स्वरचित मौलिक रचना
राधेश्याम खटीक
भीलवाड़ा राजस्थान

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