* धरा पर खिलखिलाती *
** गीत **
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जिन्दगी जब है धरा पर खिलखिलाती।
किंतु यह है नित्य क्यों आंसू बहाती।
शुद्ध जलवायु हमें इसने दिया है।
और बदले में नहीं कुछ भी लिया है।
फूल है हर ओर सुन्दर से खिलाए।
खूब भँवरों ने सुमधरिम गीत गाए।
क्यों नहीं यह बात दुनिया समझ पाती।
और रिश्ता स्नेह का है भूल जाती।
जिन्दगी जब इस धरा पर खिलखिलाती।
किंतु यह है नित्य क्यों आंसू बहाती।
खूब दोहन है किया हमने मही का।
और है छोड़ा नहीं इसको कहीं का।
पेड़ पौधे सूखते ही जा रहे हैं।
क्यों सभी ये रूठते ही जा रहे हैं।
गर्मियों की प्यास जब हमको सताती।
मां हमारी प्यास है फिर भी बुझाती।
जिन्दगी जब इस धरा पर खिलखिलाती।
किंतु यह है नित्य क्यों आंसू बहाती।
चाहिए हम आज पश्चाताप कर लें।
और मां से स्नेह का व्यवहार कर लें।
रोकना हर हाल है हमको प्रदूषण।
और करना पुण्य भू का नित सँरक्षण।
भावना यह रश्मि आशा की जगाती।
और नैसर्गिक धरा को फिर बनाती।
जिन्दगी जब इस धरा पर खिलखिलाती।
किंतु यह है नित्य क्यों आंसू बहाती।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य