धरा की व्यथा
धरा की व्यथा_
तरक्की के नाम पर कटते दरख़्त हरे भरे|
हक्की बक्की सी धरा अपनी व्यथा किससे कहे|
वह सोचती है यह मनुज कैसा है होता जा रहा|
अपनी ही संतति के लिए विष बीज बोता जा रहा|
पल पल कटते वृक्षों से खतम हो रहा पल सुनहरा|
आर्त्त नाद करती हुई तब गगन से बोली धरा_
तपन बहुत है नगर में थोड़ा छांव जिंदा रहने दो|
मुझमें तो मेरा थोड़ा सा गाँव जिंदा रहने दो|
रिश्तों की मर्यादा थी, वहाँ दादी और दादा थे|
कथनी करनी एक थी उनकी पूरा करते वादा थे|नीम शीतला मइया थी पीपल बरगद शिव बाबा थे|थाल आरती सजी थी रहती गुण सज्जित मुख आभा थे|
जिससे व्यथा कथा कहते थे, वो छांव जिंदा रहने दो|
मुझमें तो थोड़ा सा मेरा गाँव जिंदा रहने दो|
तपन बहुत है नगर में थोड़ा छांव जिंदा रहने दो|
मुझमें तो थोड़ा सा मेरा गाँव जिंदा रहने दो|
बच्चा बच्चा कहता है ऐ
माता और पिता सुन लो
पीपल की छइयां में बैठ के जल कूएं का पीते हो|
हमको छान छान कर जल देकर तुम बहलाते हो|
वृक्ष खड़े जो हरे भरे तुम उनको भी कटवाते हो|
हममें भी जीवन के प्रति कुछ चाव जिंदा रहने दो|
मुझमें तो थोड़ा सा मेरा गाँव जिंदा रहने दो|
डा पूनम श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
सल्तनत बहादुर पी. जी कालेज बदलापुर जौनपुर