*धरम भी कहें हम *
पलने लगे इंसानियत जिगर में,तो इसे धर्म भी कहें हम।
निकल जाए आँखों से नफरत,तो आई शरम भी कहें हम।
खंडहर को नज़ाकत दिखाने से ,क्या फायदा होता तुम्हें
तारीफ़ इसमें है ,जब किसी कमजोर को मरहम बने हम।।
कैसी आदतें पाल रखी हैं वेहुदी सी,कहना बुरा लगता है
फ़िजा तो तव महके,जब अच्छी बातों का जिकर करें हम।।
मर कुचल रहे हैं लोग वेचारे,हंस के चले जाते हैं कितने
दिलों में मोहब्बत जब जाने , उसका हाथ पकड़ मरें हम।।
जानवर भी खाल नहीं नोचते किसी की,वे रहमीं दिख़ाके
थू है मग़र तेरी हैवानियत को,जिंदगी का तो डर करें हम।।
हाय!निकलती है ‘साहब’ जब फुँगां रोकर चिल्लाती है
अपने भी प्राण निकलेंगे कभी,कुछ तो सोच सचर करें हम।।