धरती की पुकार
धरती की पुकार
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मेरे प्यारे बच्चों
तुम सब इतना निर्दयी मत बनो,
सिर्फ अपनी सुख सुविधा ही मत देखो
मेरी पीड़ा को भी महसूस करो।
मेरा अस्तित्व खतरे में न डालो
मेरी आत्मा को अब और न नोचो,
मेरा हरा भरा श्रृंगार नोच रहे हो
मेरा अंग प्रत्यंग लहूलुहान हो रहा है,
हरियाली का नामोनिशान मिट रहा है
अपनी आज की प्यास बुझाने की खातिर
कल अपने लिए आज ही गड्ढा खोद रहे हो।
प्राकृतिक संपदा नष्ट कर रहे है,
जल स्रोतों को सोख रहे हो
नदी ,नाले, पर्वत जंगल निगलते जा रहे हो,
बाढ़, सूखा, भूस्खलन, भूकंप और
बादलों को फटने का खुला दावत दे रहे हो।
मां कहते हो मुझे तुम सब
और मां को ही नोच खसोट कर नंगा कर रहे हो,
मेरी मौत का बड़ी तेजी से इंतजाम कर रहे हो।
बड़े नासमझ हो तुम सब
तिल तिल कर खुद मरने के लिए
मौत को दोनों हाथों से
बड़े प्यार से आमंत्रण दे रहे हो,
और खुद पर बहुत इठला रहे हो,
कैसे समझाऊं तुम्हें मेरे बच्चों
मुझे खून के कितने आंसू रुला रहे हो।
बहुत अफसोस हो रहा है आज मुझे
न तुम्हें मेरी चीख सुनाई देती है
न ही मेरी पुकार सुन रहे हो तुम सब
कैसे समझाऊं मैं तुम सबको
मैं तो तिल तिल मौत की ओर बढ़ रही हूं
पर मेरी गोद में तुम सब भी
मौत के जाल में फंसते जा रहे हो
अपनी धरती मां को ऐ कैसा दिन दिखा रहे है
अरे मैं मां हूं तुम सब की
क्यों अपनी हरकतों से मुझे डायन बना रहे हो।
अपने ही बच्चों की मौत का कलंक
मेरे मत्थे जड़ने का षड्यंत्र कर रहे हो।
धरती मां को रोज रोज रुलाने का
आखिर ये कैसा प्रयत्न कर रहे हो?
मैं खुद ही मौत को गले लगा लूं
तुम सब आखिर बताओ ऐसा क्यों कर रहे हो?
मेरी करुण पुकार तुम सब
क्यों? क्यों?? क्यों???नहीं सुन पा रहे हो?
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश
© मौलिक स्वरचित