धरती और अम्बर
जब बादल गरजा करते हैं
और बिजली कड़का करती है।
फिर धरती से छोटी बूंदे
हँस के झगड़ा करती है।
मस्त हवा का हल्का झोंका
जब बदन पे आके लगता है।
काश मौसम ऐसा ही रहे
ख़्वाब ये मन में पलता है।
बादल धरती पर बरस- बरस
पानी – पानी कर देते हैं।
धरती -अम्बर के रिश्ते को
हर ओर अमर कर देतें हैं।
फिर धरती बारिश के पानी को
खुद में संजोया करती है।
फिर सूरज के माध्यम से
अम्बर तक पहुंचाया करती है।
ये लेन देन का पुरा सिलसिला
अनवरत चलता रहता है।
हम एक दूजे के पूरक हैं
अम्बर धरती से कहता है।
जो धरती ने उपजाया है
अम्बर ने उसको सींचा है।
दोनों एक ही हैं मानो
बस एक खाका खींचा है।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी