गोबरैला
गांव की पशुशाला देखा है,
जहाँ होते गइया बैला।
वहाँ मिले एक कीट घूमता,
काला सा गोबरैला।
भँवरे जैसे आकृति इसकी,
अपनी आदत से मजबूर।
भूमि में खुद की बिल में रहता,
खेत बाग में जाकर दूर।
पैर सहारे स्वयं बनाता,
गोबर का भारी गोला।
पैरों से लुढ़का ले जाता,
बिल तक जाता चल डोला।
अपने वजन से बड़ा बनाता
गोबर गोले का आकार।
कुछ भी करे घुसे न बिल में
भोजन इसका हो बेकार।
हो निराश बिल ये में जाता,
संग लिये बड़ी निराशा।
सारी मेहनत बृथा जाती,
कुछ न जाता साथा।
अगले दिन वैसे ही क्रिया,
गोला लेकर जाता।
बार बार हर दिन यही करता,
पर कुछ हाथ न आता।
यही हाल मानव की भी है
वह भी पन भर खटता।
सौ हजार लख और करोड़ा,
पैसा पैसा रटता।
यह करते जीवन ढल जाए,
धन कोई काम न आये।
यहाँ वहाँ दोनों बन जाता,
यदि भजता रघुराये।
विषय कमाते हरि बिसराता,
तन मन हो गया मैला।
मनु मेहनत त्यों निष्फल होती,
ज्यों गोबर गोबरैला।
सतीश सृजन, लखनऊ.