द्वार पर
द्वार पर…..
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देहरी पर
दीप बाले
द्वार पर कब से
खड़ी मैं पर
तुम कहाँ हो साँवरे!
दीप ये
बुझने न पाए
एक पल भी बिन गँवाए
हवा से रह-रह बचाती
तुम कहाँ हो साँवरे!
मन व्यथित
भटके है गोकुल
मथुरा और वृंदावन
किस दिशा किस राह अटके
तुम कहाँ हो साँवरे!
द्वारिका है
इतनी भायी
उसके कर्म मोह में
प्रीत विस्मृत कर गए
तुम कहाँ हो साँवरे!
अश्रु भी
लगे सूखने अब
एक मोती है सहेजा
भेंट में देने को तुमको
तुम कहाँ हो साँवरे!
लगता है
अब नहीं बचूँगी
देखे बिना प्राण कैसे तजूँगी
सुर लहरियाँ वंशी की अब गूँजने दो
आ गयी चलने की बेला
तुम कहाँ हो साँवरे!
अब दर्श तो दो साँवरे!
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डा० भारती वर्मा बौड़ाई