द्वारिका गमन
कृष्ण ने कंस को वध किन्हा।
कृष्ण वध जरासंध प्रण लिन्हा।।
आठों याम एक ही विचारा।
यदुओं पर आक्रमण बारम्बारा।।
ले यवनी दल घेरो मथुरा द्वारा।
कृष्ण कर दियो रिपु संहारा।।
कान्हा ने अरि मथन किन्हा।
सेना से सब निधि धन छिन्हा।।
बटोर धन सब गठरी बनाई।
कहा चलो द्वारिका यदु भाई।।
धन बैलों पर कुछ काँधे लादा।
द्वारिका चल पड़े यदु नर मादा।।
तेही जरासंध अठारहवीं बारा।
तेईस अक्षौहिणी कियो प्रहारा।।
मनुष्य अवतार धरे थे साँई।
हुए भयभीत सौं लीला दिखाई।।
देख प्रखर सेना चढ़ि आई।
शीघ्र भाग उठे दोनों भाई।।
छोड़ दियो सम्पूर्ण धन आगे।
कोमल पंकज पद कोसों भागे।।
हँसो जरासंध काहे भागे जाते।
ठाड़ो कृष्ण करो कुछ बातें।।
रच सेना ले भूपति पीछे भागा।
कोसों दौड़ थक गए थे भ्राता।।
प्रवर्शण पर्वत छिपे कृष्ण बलरामा।
इंद्र जल बरसाते जहँ अविरामा।।
जब ढूँढ ढूँढ न मिल्हीं द्वि भाई।
गिरी चारों ओर पावक दियो लगाई।।
देखहीं धू धू जलत विशाल भूधर
धरा कूद पड़े गिरधर और सहोदर।।
चवालिस कोस शिखर ऊँचाई।
सेना से अलक्षित छलांग लगाई।।
गमन कियो द्वारिका द्वि भाई।
जो बसी रही समुद्र की खाई।।
दहन हुए दोनों एही माना।
जरासंध गमन कियो निज धामा।।
रेखांकन।रेखा